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________________ १७५ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *******************************來***多次 के पीछे पड़ कर लोगों ने साक्षात् आचार्यों की भक्ति से उपेक्षा अख्तियार कर ली। मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि आप इस पचड़े को हटा दीजिये, इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि छोटों का काम बड़ों की आज्ञा से चल सकता है और बड़ों का काम प्रभु आज्ञा से फिर, स्थापना के अडंगे की आवश्यकता ही क्या? इसके सिवाय आपने यह भी लिख डाला कि - भारत क्षेत्र में शासन सीमंधर स्वामी का नहीं, पर भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर सौधर्म गणधर का है उनकी स्थापना अवश्य होनी चाहिए। तीर्थंकर सीमंधर के ओर भगवान् महावीर के आचार व्यवहार क्रिया में कई प्रकार का अन्तर है" आदि। इस विषय में संक्षेप में यही कहना है कि - जब आप सुधर्मा स्वामी का शासन मानते हैं तो फिर जम्बू स्वामी का क्यों नहीं मानते? उनके बाद प्रभवस्वामी ऐसे होते २ वर्तमान आचार्य तक चले आइये शासनकर्ता विद्यमान मिलेंगे फिर स्थापना की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इसके सिवाय आपने सीमंधर स्वामी की आज्ञा लेने में जो एतराज किया है, यह भी व्यर्थ है क्योंकि प्रथम तो हमें इसमें कोई आग्रह नहीं है जैसी जिसकी मान्यता हो करें परन्तु हमें आश्चर्य तो आपकी द्वेष परायणता पर है कि आप हमसे तो सीमन्धर स्वामी की आज्ञा लेने पर एतराज करते हैं और खुद लम्बे चौड़े हुंडी, पेंठ, परपेठ और मेझरनामे लिखकर सीमन्धर स्वामी के पास भारत की शिकायत भेजते हैं बताइये अब आप किस मुंह से जवाब देंगे? जबकि आप सीमन्धर स्वामी को यहाँ के शासन कर्ता नहीं मानते हैं तो यहाँ के शासन की शिकायत उनके पास भेजना क्या मूर्खता नहीं है? वास्तव में आपके हृदय में स्थानकवासियों के लिए हलाहल भरा हुआ है, हमारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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