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१७६ व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य *************求******李******************** कोई भी बात आपको अच्छी नहीं लगती, इसी से आप दिल खोल कर मनमाना लिख रहे हैं?
इसके सिवाय अन्त में आपने यह भी लिखा है कि "तुम कल्पना करते हो, फिर साक्षात् स्थापना मानने में हट करना तो दुराग्रह ही है" इसके उत्तर में आपको मालूम हो कि भावों द्वारा कल्पना केवल शरीर या आकृति की ही नहीं होती, किन्तु साक्षात् गुणवान्-भाव युक्त के व्यक्तित्व की ही होती है, जो कि सर्वथा उचित है किन्तु मूर्ति से तो बस जो वस्तु सामने दिखाई देती है वो ही भावों में आती है, स्थापनाचार्य देखने पर बस थोड़ीसी वस्त्र वेष्टित गोलमाल आकृति सामने आ जाती है, जिससे बस यही दिखाई देती है अन्य कुछ नहीं, अतएव कल्पना द्वारा गुणी के गुण का चिंतन या स्मरण करना अत्यन्त उपयोगी है, इसकी उपेक्षाकर स्थापना का अडंगा लगाना मतान्धों का कार्य है।
आश्चर्य है कि लोगों ने आत्मोत्थानकारी गुणों का चिन्तन मनन और आचरण नहीं करके एकान्त हठ में पड़कर स्थापना को व्यर्थ गले बांध रखी है, जो कि कतई अनावश्यक और व्यर्थ की उपाधि है। अच्छा हो यदि ये लोग इस व्यर्थ की उपाधि परिग्रह से अपना पिंड छुड़ा कर आत्मिक शक्ति को ही बढ़ावें।
(२४) व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य
श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने पृ० ११४ में व्यवहार सूत्र से मूर्ति सिद्ध करने के लिए निम्न पाठ उद्धृत किया है -
"जत्थय समभावियाइंचेइयाइंपासेज्जा कप्पई से तस्संतिए आलोइत्तावा।"
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