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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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उक्त पाठ का भाव बताते हुए लिखते हैं कि किसी साधु के दोष लगा हो और आचार्यादि गीतार्थ का अभाव हो तो वह साधु सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा के पास आलोचना कर सकता है।"
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इस विषय में पाठकों को सरलता के लिए उक्त पाठ के पूर्वापर सम्बन्ध का भाव बतलाते हैं -
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व्यवहार सूत्र के प्रथमोद्देशक के आलोचनाधिकार में यह बताया गया है कि यदि किसी साधु को कुछ दोष लगा हो तो उसकी आलोचना के लिए अपने आचार्य उपाध्याय के समीप जाकर आलोचनादि करे। यदि आचार्य उपाध्याय दूर हों तो संभोगिक, बहुसूत्री, उग्रविहारी साधु के समीप जाकर आलोचना करे, यदि इनका भी योग नहीं मिले तो असंभोगिक, साधर्मिक बहुसूत्री साधु के समीप जाकर आलोचना करे, यदि इनका भी योग नहीं मिले तो संयम से गिरा हुआ बहुसूत्री श्रमणोपासक हो उसके पास आलोचना करे, यदि इसका भी अभाव हो तो “समभावित चैत्य" के समीप जाकर आलोचना करे, समभावित चैत्य के अभाव में ग्राम के बाहिर जाकर ईशान कोण की तरह मुंह कर दोनों हाथ जोड़कर अपना दोष कहे और अरिहंत सिद्ध के समीप आलोचना कर प्रायश्चित ले ।"
यह प्रकरण का सार है इसमें आलोचना का एक स्थान सम्भावियाई चेइयाई (समभाव वाला चैत्य) भी है जिसका अर्थ सुन्दर मित्र “सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा" करते हैं, जो कि मूल शब्दों से बिलकुल विपरीत है। यदि सुन्दर मित्र हार्दिक सुंदरता पूर्वक विचार करते या इस सूत्र के टीकाकार की व्याख्या को ही पढ़ लेते तो इन्हें इस प्रकार की कुतर्क करने का मौका ही नहीं मिलता। देखिये
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