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________________ १७२ स्थापनाचार्य का मिथ्या अडगा ******************************************** अवधिज्ञान द्वारा मालूम होता है तब वह सिंहासन छोड़ता है और सात आठ कदम ईशान कोण की तरह आगे बढ़कर भूमि पर बैठता है, बाद में मस्तक झुकाकर वन्दना-स्तुति करता है, किन्तु वहाँ भी स्थापना का उल्लेख नहीं है। इसके सिवाय वहाँ एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि ऐसे धार्मिक कार्यों के समय में शक्रेन्द्र मूर्तियों के पास जाकर वन्दनादि नहीं करता किन्तु सभा स्थान के समीप ही स्तुति करता है, इससे यह स्पष्ट हो गया कि उन मूर्तियों और उनकी पूजा से धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। (२) उपासक दशांग, भगवती, ज्ञाता रायप्रसेनी आदि सूत्रों में श्रावकों की धर्मकरणी का कथन है, उसमें बताया गया कि वे पौषधशाला में जाकर प्रतिक्रमण, पौषध, उपवासादि तप, संलेषणा आदि क्रियायें करते, किन्तु किसी को भी स्थापना की आवश्यकता पड़ी हो या किसी ने रखी हो, यह नाम मात्र उल्लेख भी नहीं है। यही नहीं अंतकृतदशांग में सुदर्शन श्रेष्ठि का इतिहास बताया गया है, जो प्रभु वन्दन को शहर के बाहर जाता है और रास्ते में उसे अर्जुन से उपसर्ग होता है, वह वहीं आलोचना प्रतिक्रमण कर सागारी अनशन कर लेता है, किन्तु वहाँ भी स्थापना की आवश्यकता नहीं हुई। (३) भगवती, ज्ञाता, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, विपाक आदि सूत्रों में साधुओं की धर्मकरणी और अनशन आदि का उल्लेख है वहाँ भी बिना स्थापना के उनका काम हुआ, बल्कि निरर्थक ऐसी स्थापना की उन्हें आवश्यकता ही नहीं हुई, यहां तक कि उनके काल कर जाने पर साथ वाले सहायक मुनि उनके भंड उपकरण लेकर प्रभु के पास आये, ऐसा उल्लेख तो मिलता है किन्तु उनमें भी स्थापनाचार्य का तो नाम मात्र भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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