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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************ पाठान्तरेपि तिसृभिः (श्रद्धाभिः) गुप्ति भरेवेति तथा 'दुपवेसं' ति द्वौ प्रवेशो यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशं तत्त्व प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति 'एगनिक्खमणं' ति एकं निष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां ह्यवग्रहान्न निर्गच्छति, पादपतित एवं सूत्र समापयतोति ।" ( आगमोदय समिति पत्र २३ ) इस वृत्ति में भी स्थापना का नाम निशान तक नहीं है फिर समझ में नहीं आता कि मूर्तिपूजक लोंका - गच्छीय यतियों ने किस आधार स्थापना का उल्लेख कर डाला? १७१ वृत्ति और इसी टब्बार्थ के बाद के कथन से तो साफ-साफ गुरु को वंदन करना ही सिद्ध होता है, देखिये सुन्दरजी के दिये हुए प्रमाण का अवतरण पृ० १०६ से - " गुरु न पगे वंदणा कीजे, 'अहोकायं काय' ए पाठ कही विहुवाला थइ १२ बारा आवर्त यथा चोसरो ४ बेवला गुरु ने पगे मस्तक नमाड़िये | आदि - Jain Education International इस प्रकार खुल्लम-खुला गुरु वन्दन स्वीकार किया गया है। इतना होते हुए भी सुन्दर मित्र अनर्थ का सहारा लेकर स्थापनाचार्य मनवाने का दुराग्रह करते हैं यह कहां तक उचित है ? हम स्पष्ट और साहसपूर्वक कहते हैं कि जिनागमों में किसी भी स्थान पर स्थापनाचार्य रखने का विधान नहीं है, न स्थापना से आदेश लेने का ही उल्लेख है, यही नहीं चौथे पांचवें और छठे गुणस्थान वर्तियों के चरितानुवाद में भी यह बात नहीं है। देखिये निम्न प्रमाण (१) जब शक्रेन्द्र को प्रभु के "केवल्य कल्याण" आदि का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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