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स्थापनाचार्य का मिथ्या अंडगा ********************************************** कीजे' लिखा है और अन्त में यह भी लिखा है कि “एह समवायांग वृत्ति नो भाव" किन्तु यह अर्थ बिलकुल निर्मूल है, इससे मूल का कोई सम्बन्ध नहीं है, न वृत्तिकार ने ही स्थापना का उल्लेख किया है, देखो समवायांग के उक्त पाठ की श्री अभयदेवसूरिकृत वृत्ति का अवतरण -
"दुवालसावत्ते किइकम्मे" त्ति द्वादशावर्त कृतिकर्म-वन्दनकप्रज्ञप्तं, द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन् शेषांश्चतद्धर्मानभिधित्सुःरूपकमाह-'दुओणए' त्यादि, अवनतिखनतम्-उत्तमान प्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवन्तेयस्मिंस्तदद्वयवनतं,तत्रैकंयदा प्रथममेव इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए' त्ति अमिधायाव ग्रहानुज्ञापनायावन मतीति, द्वितीयं पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति, यथाजातंश्रमणत्वभवनलक्षणंजन्माश्रित्ययोनिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहरण मुखवस्त्रिका चोलपट्टमात्रया श्रमणो जानो रचितकरपुटस्तुयोन्या निम्रत एवंभूत एव वन्दते तदव्यतिरेकाद्वा यथा जातं भण्यते, कृतिकर्म-वंदन 'बारसावयं' ति द्वादशावर्त्ता:-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापार विशेषाः यतिजनप्रासद्धाः यस्मिस्तद द्वादशावर्त तथा 'चउसिरं' ति चत्वारि शिरांसि यसिंमस्तच्चतुः शिरः प्रथम प्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्य शिरोद्वय पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना तथा 'तिगुत्तं' ति तिसृभिर्गुप्तिभिगुप्तः
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