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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६६ ***************************************** अपने ही समान मूर्तिपूजकों के किये हुए अनर्थों को हमारे सामने पेश करे, यह कहाँ तक उचित हैं? सुन्दर मित्र को सोचना चाहिये कि आखिर लोंकागच्छ के यति (जो मूर्ति पूजा करते हैं) भी तो मूर्ति पूजक हैं, फिर उनके किये विपरीत अर्थों को सामने लाते आपको शरमाना चाहिए, वे कदापि श्री लोकाशाह के अनुयायी नहीं है। (२३) स्थापनाचार्य का मिस्या अंडगा श्री ज्ञानसुन्दरजी पृ० १०८ में स्थापनाचार्य रखने की आवश्यकता बतलाते हुए लिखते हैं कि - ___ “प्रतिक्रमण सामायिकादि धर्म क्रिया करने के समय स्थापनाचार्य की भी परमावश्यकता है, यदि स्थापना न हो तो क्रिया करने वाला आदेश किसका ले? इसके सिवाय स्थापनाचार्य के लिए आप शास्त्रीय प्रमाण पेश करते हैं वह भी देखिये - । “दुवालसावत्ते कितिकम्मे प० तं० दुउणयं जहाजायं, कितिकम्मं बार सावयं चउसिरं तिगुत्त चादुपवेसं एग् निक्खमणं।" ___ सुन्दर मित्र ने उक्त पाठ स्थापना रखने की सिद्धि में पेश किया है, किन्तु उक्त पाठ में एक भी अक्षरं ऐसा नहीं जो स्थापना का नाम भी बताता हो, फिर सुन्दर जी के मिथ्या प्रपंच में सार क्या निकला? सुंदर मित्र ने उक्त पाठ के नीचे लोंका-गच्छीय यतियों की ओर से किया हुआ टब्बार्थ दिया उसमें बिना ही मूल के "गुरुनी थापना Jain Education International For Private &.Personal.Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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