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________________ लोका-गच्छीय यति और भूकम्प की तरह कम्पित होकर बहुत सी धराशायी हो गई। बच खुची भी अपना भविष्य अन्धकारमय देखने लगी, उसी धर्मवीर के स्वर्ग गमन के पश्चात् उसी के वंशज पुनः शिथिलाचार में फंस कर बाद में मूर्ति पूजक हो गये हैं। भला वे अब श्रीमान् लोकाशाह के वंशज कैसे हो सकते हैं? आप ही सोचिये कि कहाँ तो उस महान् आत्मा का मूर्तिपूजा विरोध और कहां उनके वंशज कहे जाने वाले लोंका गच्छीय यतियों का मूर्तिपूजा स्वीकार ? क्या अब भी वे श्रीमान् धर्म सुधारक लोंकाशाह के अनुयायी बनने का दावा कर सकते हैं? कदापि नहीं । १६८ ******* सोचिये ? एक सद्गुणी सेठ के दो पुत्र ही सेठ का व्यवहार उच्च और आदर्श हो, कालान्तर में सेठ का स्वर्गवास हो जाने पर एक पुत्र तो अपने पूज्य पिता के आदर्श को सम्मुख रखकर तदनुसार व्यवहार करे, व दूसरा अपने पिता के आदर्श को ठुकराकर उनके नाम को कलङ्कित करने वाले विरोधी कार्य करे, दिवाला निकाल दे तो, आप ही बताइये कि इन दो में कौन सुपुत्र कहलाने योग्य है ? प्रथम पुत्र ही न ? कहने की आवश्यकता नहीं कि दूसरा पुत्र कुपुत्र और कुलकलङ्क है। बस इसी तरह जरा सरल बुद्धि से यह समझिये कि जिन यतियों ने श्रीमान् धर्मक्रांतिकार लोकाशाह की आज्ञा के विरुद्ध, मान्यता के विरुद्ध शिथिल बनकर मूर्तिपूजा को स्वीकार किया है, वे वास्तव में उक्त दान्त के दूसरे कुपुत्र की श्रेणि के हैं और आज भी कितने ही लोकागच्छ के यति ऐसे भी हैं जो मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, वे तो अलबत्ता प्रथम श्रेणि के सुपुत्र की तरह श्रीमान् लोकाशाह के अनुयायी और वंशज कहे जा सकते हैं। जो लोग स्वयं मूर्तिपूजक हैं वे अपने मन्तव्य की सिद्धि लिये For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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