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________________ १६७ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *************************************** बाइयों में भले फैल जाय किन्तु जो साक्षर हैं जो विचार व बुद्धि से काम लेते हैं, उनके आगे आपका सारे प्रयत्न निष्फल ही जाते हैं। आपको यह तो मालूम ही होगा कि - श्रीमान् लोकाशाह मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, मूर्ति पूजा के विरुद्ध उन्होंने प्रबल प्रचार किया था, यह बात आप अच्छी तरह जानते और लिखते हैं। आपका मूर्तिपूजक समाज भी यह स्वीकार करता है, हमारी भी यह मान्यता है कि पतनोन्मुखी जैन समाज जो कि अपने शिथिलाचारी, स्वार्थी, अगुवाओं की करतूतों के कारण रसातल को जा रहा था, तब इस पुण्य भूमि पर धर्म प्राण लोकाशाह का प्रादुर्भाव हुआ। उस पुण्यात्मा ने जब जैन सिद्धान्तों का अवलोकन कर मनन किया तो उन्हें यह स्पष्ट मालूम हुआ कि वर्तमान में इन कहे जाने वाले जैन साधुओं में साधुत्व का तो नाम ही नहीं है किन्तु यह दल अधिकांश में परम पवित्र जैन धर्म के सत् सिद्धान्तों का घातक, प्रभु आज्ञा भंजक, शिथिलाचारी, स्वार्थ पीपासु और धर्म के नाम से झूठा पाखण्ड चलाने वालों का है मूर्ति पूजा जिसके लिए आगम आज्ञा का अणु मात्र भी सहारा नहीं है, उसे अपना स्वार्थ पूर्ति का प्रबल साधन होने से केवल इसी में धर्म बता रहे हैं, इसके द्वारा जनता को अन्धविश्वास में डालकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धर्म के विशेष तत्त्व जो कि आत्म-कल्याण के मुख्य साधन हैं उन्हें स्वार्थवश दबा बैठे हैं। जैनागमों के मनन से उस वीरपुत्र को जब समाज की वर्तमान दशा का भान हुआ तब उस परम क्रान्तिकार-धर्म सुधारक, धर्मप्राण लोंकाशाह ने सिंह गर्जना कर सर्व प्रथम धर्म घातक, पाखंडवर्धक, अन्धविश्वास की जननी, शिथिलाचार की पोषक ऐसी मूर्ति पूजा के विरुद्ध आवाज उठाई। भद्र और सुज्ञ जनता ने उस बुलन्द आवाज को सुना, पाखण्ड की दिवालें हिल उठी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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