________________
पूयणवत्तियं 李安求字中李*****中空学会学术字*********茶************空中 सामग्री ले सकते हैं? किन्तु ऐसा करना अनर्थ परम्परा खड़ी करना है। वास्तव में यही ठीक है कि न तो स्वयं वीतराग प्रभु महावीर पुष्पादि से की हुई पूजा को स्वीकार करते थे, न स्वयं के उपयोग के लिए सचित्त वस्तु छूते थे। इतना ही नहीं अपने श्रमण वंशजों को भी प्रभु ने सचित्त वस्तु छूने की मनाई कर दी, जो आज पर्यन्त चली आती है। जब स्वयं वीर प्रभु सचित्त वस्तु का स्पर्श ही नहीं करते, तब उनकी भक्ति करने वाले प्रभु को मान्यता और आज्ञा के विरुद्ध सचित्त फूलों से उन की पूजा कर ही कैसे सकते हैं? पाठक स्वयं सोच लें।
सुन्दर मित्र ने 'अप्पेगइया' आदि पाठ देकर 'लोंकागच्छ' के नाम धारक मूर्ति-पूजक यतियों का किया हुआ फूलों से पूजने का अर्थ पेश किया है, किन्तु यह अर्थ केवल मनः कल्पित है। यतियों ने ऐसा अर्थ करके जैन मान्यता और आगम की अवहेलना की है।
चालू विषय में सुन्दर मित्र ने पृष्ठ ७२ में लिखा है कि -
"श्रीमान् ऋषिजी को पूछा जाय कि “वंदणवत्तियं" का अर्थ तो आपने वन्दना, स्तुति कर दिया, जिसको आप भाव पूजा मानते हो। फिर “पूयणवत्तिया' का क्या अर्थ होता है? यदि आप भाव पूजा ही कहोगे तो आपके अनुवाद में पुनरुक्ति दोष आवेगा" आदि।
वास्तव में सुन्दरजी में अज्ञता पूरी तरह से छाई हुई है। अभी तो सुन्दर मित्र द्रव्य भाव का भेद ही नहीं समझ सके हैं। क्योंकि द्रव्य पूजा उसे ही कहते हैं जो बाह्य रूप से हो जैसे - शरीर से झुककर नमन करना, कचन से स्तुति करना, ये द्रव्य पूजा है और मन से प्रभु के चरणों में अपने को अर्पित कर देना, बहुमान करना, प्रभु की अनन्त ज्ञानादि शक्ति पर विश्वास रखना और आज्ञाओं को हृदय में स्थापन करना है मानसिक भक्ति-भाव-पूजा किन्तु भाव शब्द जो कि मानस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org