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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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का दूसरा नाम है, नहीं समझने वाले सुंदरजी शरीर और वाणी को ही मानस-भाव का रूप देते हैं । और अपनी अज्ञता दूसरों के शिर लादते हैं ? आश्चर्य है कि विद्वान् (?) सुन्दरजी किस बल पर आक्षेप करने को तैयार हुए हैं।
महात्मन्! भावयुक्त भक्ति नमस्कार रूपी द्रव्य भक्ति से पृथक् है । देखिये इसी उववाई सूत्र का कोणिक वंदन अधिकार जिसमें स्वयं सूत्रकार ने भक्ति के तीनों भेद पृथक् २ इस प्रकार बताये हैं -
“तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ तंजहा काइयाए वाइयाए माणसियाए, काइयाए ताव संकुइ अग्गहत्थपाद सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणणं पंजलिउडे पज्जुवासइ, वाइयाए जं जं भगवं वागरेइ एवमेअं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिहमेअं भंते! इच्छिअमेअ भंते! पडिच्छिअमेअं भंते! इच्छियपडिच्छियमेअं भंते! से जहेयं तुब्भे वदहं अपडिकूलमाणे पज्जुवासति, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्तो पज्जुवासइ ।” सूत्र ३२
कहिये सुन्दरजी! सम्राट कोणिक जो कि श्री वीर प्रभु का अनन्य भक्त था, उसने भी प्रभु की फूलों से भक्ति नहीं की, केवल मन, वाणी और शरीर से ही भक्ति की । भक्ति के तीनों प्रकार सूत्रकार ने स्पष्ट बतला दिये, इनमें आपकी प्रिय ऐसी पुष्पों से पूजा तो है ही नहीं । कहिये फिर आपका फूलादि से पूजने का सिद्धांत कहाँ गायब हो गया ?
जो कणिक राजा भगवान् पर अपनी अनन्य भक्ति के कारण सदैव प्रभु के समाचार मँगवाया करता था, इसी काम के लिए उसने कुछ सेवक भी रख छोड़े थे । भगवान् के समाचार सुनकर वह अत्यन्त
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