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पूयणवत्तियं
प्रसन्न होता था । इस प्रसन्नता में वह समाचार देने वाले को भारी पारितोषिक देता था । ऐसे परमोपासक राजेन्द्र भी प्रभु को दो कोड़ी के (बिना कीमत के - खुद के बगीचे के ) फूल भी नहीं चढ़ा सका । क्या इस भक्ति को वह नहीं जानता था ? या आप जैसे गौतमावतार राजा की सलाह देने वाले वहाँ नहीं थे? फिर क्या कारण है कि कोणिक ने फूलों से प्रभु पूजा नहीं की? सुन्दर मित्र ! इतना ही नहीं सम्राट कोणिक जब प्रभु वंदन को अपने स्थान से धूमधाम पूर्वक निकला था, तब उसके पास फूल जरूर थे, किन्तु समवसरण के निकट आते ही उसने फूलों को दूर कर दिया, देखिये वहाँ का सूत्र पाठ " सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए"
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टीका
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"पुष्पादिसचेतनद्रव्य त्यागेन"
कहिये मित्र ! अब तो स्पष्ट हुआ ? क्या अब भी आपका व लोकागच्छिय मूर्त्तिपूजक यतिजी का अनर्थ टिक सकता है?
सुन्दरजी! आप यह नहीं समझ लें कि केवल कोणिक ने ही फूलों से पूजा नहीं की, किन्तु जैनागमों में अनेक राजा, महाराजा सेठ सेनापति आदि के प्रभु वंदन और भक्ति करने के अनेक वर्णन आये हैं। उन सब में यही बतलाया है कि-उन्होंने प्रभु का आगमन सुनकर प्रसन्नता प्रकट की, शीघ्रता से स्नान मंजनादि किये, वस्त्राभूषण से सुसज्जित हुए, फूल मालाएँ पहिनी और प्रभु वंदन को गये । वन्दन, नमस्कार किया, वाणी श्रवण की यथा शक्ति व्रत प्रत्याख्यान किये। जिन वचनों में अटल श्रद्धा की। धर्म के रङ्ग में अच्छी तरह रंग गये। किन्तु किसी एक ने भी प्रभु की फूलों से या अचित्त चावलों से ही पूजा की हो ऐसा अनेकों कथानकों में से किसी एक में भी नहीं मिलता।
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