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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************
इसके सिवाय मेरे विचार से सुन्दरजी के समान सारी मूर्तिपूजक समाज के विद्वानों की मान्यता भी नहीं होगी। क्योंकि ऐसे ही प्रकरण पर विचार करते हुए श्री विजयानन्द सूरि “सम्यक्त्व शल्योद्धार" पृ० १०३ में लिखते हैं कि -
“भगवान् भाव तीर्थंकर थे, इस वास्ते तिनकी वंदना स्तुति वगैरह ही होती है और तिनके समीप सतरां प्रकारी पूजा में से वाजिंत्र पूजा, गीत पूजा तथा नृत्य पूजा वगैरह भी होती है चामर होते हैं इत्यादि जितने प्रकार की भक्ति भाव तीर्थंकर की करनी उचित है उतनी ही होती है, और जिन प्रतिमा स्थापना तीर्थंकर है, इस वास्ते तिनकी सतरां प्रकार आदि पूजा होती है।"
उक्त मंतव्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव तीर्थंकरों की पूजा फूलों से नहीं हो सकती। जब मूर्ति पूजक विद्वान् भी इस बात में अभी एक मत नहीं है, और यह बात जैन सिद्धान्त की विरोधिनी भी है। ऐसी हालत में मूर्ति के मोह में मस्त बने हुए सुन्दर मित्र बिना सोचे समझे अपना ही हठ फैलाते रहें तो इस के लिए दूसरा उपाय ही क्या है?
सुन्दर मित्र! जरा कानों के पर्दे खोलकर सुनो। जैन श्रद्धान में वास्तविक पूजा वही मानी गई है कि जिसके द्वारा आत्मा हल्की होकर ऊर्ध्वगमन की ओर अग्रसर हो, जिसमें लाभ ही लाभ हो, किसी भी पर प्राण को किञ्चित् भी दुःखदायी न हो। ऐसी ही पूजा जैन शासन को मान्य है। ऐसी पूजा पद्धति को स्वीकार करने वाले ही शुद्ध श्रद्धावान् हैं। इसके विपरीत जो पर प्राणों को लूटकर प्रभु पूजा करने का कहते हैं - मानते हैं वे वास्तव में जैन सिद्धान्त का घोर विरोध करने के साथ अपने आराध्य पूज्य की आज्ञाओं को ठुकराते हैं। व्यर्थ में पर प्राणों को लूटकर अपनी आत्मा को भारी बनाते हैं और ऐसे हिंसाकारी कृत्यों में
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