________________
पूयणवत्तियं
प्रभु-पूजा मानकर शुद्ध श्रद्धा से वंचित रहते हैं ऐसे लोग प्रभु भक्त नहीं, पर कपूत की तरह प्रभु का अपमान करने वाले हैं।
८६
मान्यवर सुन्दरजी ! प्रभु की सच्ची पूजा फूलों से पूजने में नहीं, किन्तु उनकी आज्ञा पालन करने में है । जरा आंखें खोल कर अपनी ही समाज के विद्वानों के निम्न वाक्य पढ़िये -
"इहाँ सर्व जो भाव पूजा है सो जिनाज्ञा का पालना है। " (विजयानन्द सूरि रचित जैन तत्त्वादर्श पृ० ४१६ ) "पूजा एटले तेओनी आज्ञा नुं पालन ।”
( श्री हरिभद्रसूरि, जैन दर्शन पृ० ४१) जब जिनाज्ञा पालन रूप ही पूजा मानी गई तब ऐसी पूजा में फूल, फल, पानी, अग्नि आदि की हत्या को स्थान ही कहाँ रहा? अतएव स्पष्ट हुआ कि जो लोग सचित्त वस्तुओं का उपयोग कर पूजा करते हैं, करवाते हैं, वे प्रभु पूजक नहीं किन्तु प्रभु के अपमान कर्त्ता हैं।
श्रीमान् सुन्दरजी ने इस बात को पुष्ट करने के लिए समवसरण की पुष्प वृष्टि का उदाहरण दिया है। किन्तु यदि श्री सुन्दरजी अभिनिवेश को छोड़कर शान्त चित्त से विचार करते तो " रायपसेणइय ” सूत्र से इसका अच्छा स्पष्टीकरण हो सकता था। वहाँ स्पष्ट बताया गया है कि देवताओं ने अपनी वैक्रिय लब्धि द्वारा पुष्पों के बादल बनाये और उसी बादल में से वैक्रिय से किये हुए फूलों की वर्षा की। यदि वहाँ के जलज स्थलज शब्द से ही भ्रम हुआ हो तो यह भी व्यर्थ है क्योंकि यह जलज स्थलज शब्द उपमा में लिया गया है। जैसे वे फूल कैसे थे तो जैसे जल स्थल में उत्पन्न हुए फूल हैं वैसे । जिस प्रकार " शक्रस्तव " में " पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीआणं पुरिसवर गंधहत्थीणं" ये पाठ उपमा दर्शक है, उसी प्रकार उक्त उजल स्थलज शब्द भी है। इसी
-
***
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org