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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
से पेश करते हैं । किन्तु यह प्रयास भी बिना सोचे समझे किया गया है, यद्यपि 'वंदणवत्तियं' का अर्थ वंदना करना और 'पूयणवत्तियं' का अर्थ पूजा करना होता है । तथापि पूजा करना इस शब्द मात्र से यह तात्पर्य नहीं निकला कि "फूलों से ही पूजा की जाती हो' इसके लिए सुन्दर मित्र को जैन साधुओं का कर्त्तव्य ध्यान में रखते हुए "प्रश्न व्याकरण” प्रथम संवरद्वार में दया के ६० नाम में के "पूजा" विशेषण को ध्यान से समझना चाहिए। यदि सर्व प्रथम सुंदर जी यही सोचते कि जैन तीर्थंकर सचित्त हो या अचित्त किन्तु बाह्य वस्तुओं की पूजा ग्रहण नहीं करते। (हाँ उनके उपयोग में आने वाली वस्तुएं जैसे आहार, पानी आदि तो ग्रहण करते हैं । किन्तु केवल पूजा निमित्त ही चढ़ाई जाने वाली वस्तु ग्रहण नहीं करते ) तब सचित्त वस्तु तो ग्रहण करें ही कैसे ? दूसरा “प्रश्न व्याकरण" में दया को पूजा के नाम से पुकारा है और फूलों से पूजने में फूलों के जीवों की हिंसा होती है अर्थात् दया नहीं रहती। जब दया ही नहीं रहती तो फिर जैन सूत्रानुसार वह पूजा ही कैसे कही जा सके? स्पष्ट हुआ कि फूलों से पूजा करने का कथन जैन दृष्टि से बाहर है । उववाई सूत्र के उक्त शब्द का आशय भाव-पूजा-मानसिक भक्ति से हैं । प्रश्न व्याकरण में "पूजा" शब्द की टीका करते हुए मूर्ति-पूजक अभयदेव सूरिजी लिखते हैं कि -
" पूया - पूजा ( पवित्रा) अथवा भावतो देवताया अर्चनम् ।"
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जब इन्हीं के टीकाकार महोदय पूजा का अर्थ 'भाव से देवता का अर्चन' करना बतलाते हैं, तब सुन्दर मित्र पूजा शब्द मात्र से फूलों को क्यों तुड़वाते हैं? इस प्रकार तो इसी शब्द से आप जल, चन्दन, केशर, धूप, दीप, अक्षत और द्रव्य आदि वर्तमान की समस्त पूजा
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