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भक्ति या अपमान ******************************************* कीजिये। बताइये महात्मन्? आप इसे भक्ति समझेंगे? भले ही आपका मन मचल जाय और मुंह में पानी आ जाय, पर ऊपर से तो ना ना कहकर खिसकने लगेंगे। यदि भक्त अनजान हुआ तो समझायेंगे कि हम त्यागी हैं, हमारी भक्ति इस प्रकार नहीं होती, हम ऐसी वस्तुओं को स्वीकार नहीं करते आदि किन्तु यदि आपको यह मालूम हो जाय कि भक्त ने जान बूझकर हमारी रुचि के विरुद्ध वस्तुयें हमारे सामने रखी हैं, तब तो आप उसे अपना द्वेषी या विरोधी ही समझेंगे और उसके कृत्य को अपमान ही समझेंगे।
उपरोक्त उदाहरण से जरा सरल बुद्धि से यह समझो कि तीर्थंकर प्रभु सर्व सम्पत्ति के त्यागी, षट्काय जीवों के रक्षक, दया का प्रखर प्रचार कर जो सचित्त पानी, पुष्प, बीज, हरी, फल, धूप आदि को छूते ही नहीं। अपने श्रमण पुत्रों को भी इन वस्तुओं को छूने से रोकते हैं। इनका छूना महाव्रतियों के लिए निषिद्ध ठहराते हैं। उन्हीं महा दयालु सर्वोपरि अहिंसक प्रभुओं के नाम से उनकी मूर्ति पर उन निषिद्ध वस्तुओं को चढ़ाकर उसमें आप प्रभु पूजा होना मानते हैं। यह सरासर अन्धेर खाता नहीं तो क्या है? वास्तव में आपकी यह कही जाने वाली पूजा, प्रभु पूजा नहीं, पर प्रभु का अपमान है। ___महाशय! पुष्पादि से पूजा गृहस्थों की या लौकिक देवों की होती है क्योंकि वे इसके भोगी और चाहने वाले हैं। किन्तु लोकोत्तर तीर्थंकर प्रभुओं या उनके अनगार भगवन्तों की नहीं, प्रभु की पूजा तो विशुद्ध तन मन से उनकी आज्ञा पालने से ही होती है और श्रमण भगवन्तों को उनके अनुकूल अचित्त आहारादि देने से होती है। इससे विरुद्ध करने को पूजा नहीं किन्तु अपमान कहते हैं इसलिए हमारा कथन निर्मूल और युक्ति रहित नहीं, किन्तु मौलिक और युक्तियुक्त है।
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