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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१०१ ****************************************** धर्मानुयायी सुज्ञ को कहें कि भाई! तुम्हारे धर्म के विपरीत श्रद्धान वाले अमुक पुरुष को वंदना नमस्कार करो। जब वह “ना” कहे तो फिर कहो कि - तुम उसे नहीं मानते हो तो जूते मारो, फिर देखिये वह आपको क्या जवाब देगा? यही कि महाशय! आप भी अच्छे निकले, भला मैं वन्दना क्यों करने लगा और जूते भी क्यों मारने लगा? यह कहाँ की बुद्धिमानी है? अतएव ऐसा कुतर्क करने वालों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि - जिनको आदर नहीं दिया जाता, उनका अपमान भी नहीं किया जाता, गुण निष्पन्न वस्तु को ही यथोचित आदर दिया जाना चाहिए। हम भी मूर्ति को वंदन नमस्कार नहीं करते हैं, उसी प्रकार अपमान भी नहीं करते हैं किन्तु वस्तु स्वरूप का वर्णन करते जैसे को तैसा अवश्य कहते हैं। इसमें मान अपमान की कोई बात नहीं है, वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रकट करना सत्याग्रह एवं धर्म रक्षा है। इस सिद्धान्त को अच्छी तरह समझ कर द्वेष बुद्धि को छोड़ देना चाहिए।
(१६) आनन्द-श्रमणोपासक श्री ज्ञानसुन्दर जी ने चौथे प्रकरण के पृ० ७८ से आनन्द श्रमणोपासक विषयक कलम चलाते हुए लिखा है कि - "आनंद श्रावक ने मन्दिर बनवा कर मूर्तियें स्थापित की थी और मूर्ति पूजा करता था ऐसा उपासक दशांग के “अरिहंत चेइयाई" शब्द से और समवायांग सूत्र से प्रमाणित होती है। ___मित्र ज्ञानसुन्दरजी के इस प्रकार के लेख से पाया जाता है कि - ये जड़ पूजा के रंग में पूरे रंगे हुए हैं, इसी से जहाँ एक बूंद तक नहीं हो वहाँ महासागर दिखाने जैसी व्यर्थ चेष्टा करते हैं। क्योंकि उपासक
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