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डॉ० हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय
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"मूर्ति पूजा ना पाठवाला अमूक ग्रन्थों म्हने बताववामां आव्या हता, परन्तु तेटला परथी तीर्थंकरोंए मूर्ति पूजा उपदेश्यानी बात हुं हजी मानी शक्यो न थी । "
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यह डॉक्टर महोदय का आखिरी मंतव्य है, जो कि अटल और सर्वथा सत्य है। क्या अब भी जोधपुर वाला मन्तव्य कुछ अर्थ रखता है ? नहीं, इसके सिवाय स्वयं सुन्दर मित्र ने भी अपनी इस पुस्तक पृ० १४७ पंक्ति १३ में यह स्वीकार किया है कि
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"अगर आपने सूत्र पहले देखे भी थे तो विशेष कर आचार सम्बन्धी ही ।"
इस पर से भी यह तो स्पष्ट हो गया कि डॉक्टर महोदय ने आचार सम्बन्धी सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं देखा, इसी पर से उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अंगोपांगों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, इस अभिप्राय को सुन्दर मित्र भी सच्चे हृदय का अभिप्राय बताते हुए लिखते हैं कि :
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"यह उनके निखालस और पक्षपात रहित हृदय की बात है । "
( पृ० १४८ पं० १) इसलिए आचार ग्रन्थों के अभ्यास और पक्षपात रहित निखालि तथा स्वच्छ हृदय का मूर्ति पूजा विषयक वह अभिप्राय ( कि मू० पू० का विधान अंगोपांगों में नहीं है) ही सत्य और आदरणीय हो सकता है और इसी पर से कहा जाता है कि मूर्ति पूजा का विधान सूत्रों में नहीं हैं। किन्तु सुन्दर बन्धु फिरकी खाने में भी बड़े होशियार हैं, निखालिस हृदय की पक्षपात रहित बात बता कर आगे पृ० १४८ पं० २ में आप अपना बचाव करने के लिए कहते हैं कि -
"उन्होंने यह तो नहीं कहा कि जैनागमों में मूर्ति पूजा है ही नहीं ।"
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