________________
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१६३ ********************** *********** सम्मेलन करा रहे थे वहाँ उक्त डॉ० महोदय को भी आमंत्रण दिया गया था। डॉ० साहब जोधपुर पहुंचे, आपका स्वागत धूमधाम से हुआ। आपको श्री धर्मविजयजी से मिलाया, श्री धर्मविजयजी ने आपकी खूब प्रशंसा की और अजमेर के दिये हुए भाषण से आपने अपना व सारी मूर्ति पूजक समाज का अपमान होना बताया और साथ ही सूर्याभ तथा द्रौपदी के मूर्ति पूजन का हवाला देकर जैनागमों में मूर्ति पूजा का उल्लेख होना बताया, बाद में अपना अजमेर का अभिप्राय बदलने के लिए निवेदन किया। डॉक्टर महोदय यद्यपि यह जानते थे कि इनकी दलीलें निस्सार हैं, तथापि इनके आदर सत्कार से और इन्हें भी खूश रखने के विचार से यह कह दिया कि जैनागमों में मूर्ति पूजा का विधान है। बस फिर क्या था? मीर मार लिया और इसी पर श्री ज्ञानसुन्दरजी फूल रहे हैं, किन्तु इसमें इनके फूलने की बात नहीं है। क्योंकि जब इन लोगों ने डॉक्टर साहब को उक्त अभिप्राय जाहिर किया, तब स्थानकवासी जैन संसार का इसका पता लगा, उस समय पंजाब के सहधर्मी बन्धुओं का एक डेपुटेशन डॉक्टर साहब की सेवा में गया। जिसका मुख्य कारण आचारांग सूत्र के भाषांतर के भ्रमजनक अर्थ का स्पष्टीकरण करने का था, इस डेपुटेशन में जैन संसार के प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ स्वर्गीय श्री वाड़ीलाल मोतीलाल शाह भी सम्मिलित हुए थे, उस समय डॉक्टर साहब के मूर्ति पूजा सम्बन्धी जोधपुर के अभिप्राय के सम्बन्ध में डॉक्टर साहब से खुलासा मांगा, जिसका उत्तर जो डॉक्टर साहब ने दिया वह उसी समय के “जैन हितेच्छु वर्ष १६ अंक ३-४ मार्च अप्रेल सन् १९१४ के पृ० २७६ में" पंजाब स्था० जैन संघ नु डेप्युटेशन शीर्षक लेख के पृ० २८० में गुजराती भाषा में निम्न प्रकार से छपा है -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org