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श्रेणिक और मूर्ति पूजा ****************************************** कष्ट दिया था, वे स्वर्ण जौ राजा श्रेणिक ने इसी मूर्ति पूजा के लिए बनाये थे। यह कुयुक्ति भी सुन्दर महात्मा ने विचित्र लगाई, शायद स्वर्ण जौ और किसी काम में ही नहीं आते होंगे? आज भी ऐसे कई आभूषण देखे जाते हैं कि जिनमें युगल जौ जुड़े हुए पाये जाते हैं। फिर भी यह कथा मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों की ही बनाई हुई है। किसी प्रामाणिक सूत्र की तो है ही नहीं और हमारे साधुमार्गी महात्मा भी शायद इसी को लेकर कुछ कथा करते हों, या चौपाई में गाते हों, जिनका की उल्लेख सुन्दर मित्र ने किया है। फिर भी सुन्दर मित्र की यह तो केवल कल्पना ही है कि वे वही जौ थे जो श्रेणिक के पूजा करने के लिए बनाये गये थे। अतएव इसमें भी कोई सार नहीं है।
आगे सुन्दरजी कहते हैं कि-"इसी (मूर्ति पूजा) से श्रेणिक ने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया।" यह भी केवल मनमानी कल्पना है क्योंकि मूर्ति पूजा से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होना किसी भी जगह नहीं लिखा है। हाँ सूत्रोल्लिखित अर्हन् भक्ति, शासन (प्रवचन) प्रभावना, अमारी पडह, शुद्ध श्रद्धान आदि कार्य श्रेणिक के महान् पुण्यशाली थे कि जिससे तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होना सर्वथा सम्भव है। ऐसी दशा में ऐसे कार्यों की उपेक्षा कर जबरदस्ती मूर्ति को अड़ा देना सत्यप्रिय महानुभावों का कार्य नहीं है। स्वयं मूर्ति पूजक समाज के आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानन्द सूरिजी अपने “सिद्धचक्र' पाक्षिक वर्ष ७ अङ्क ४ ता० २१-११३८ के “तीर्थ यात्रा संघ यात्रा' शीर्षक लेख के पृ० ६२ प्रथम कालम में लिखते हैं कि -
"कृष्ण महाराज अने श्रेणिक महाराज के जेओ एक नोकारसी
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