SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* ६६ ****** १. तू एक भी नवकारसी तप करले । २. तेरी कपिला नाम की दासी अपने हाथों से मुनि को दान दे। ३. काल सौरिक कसाई एक दिन के लिए भी हिंसा बन्द कर दे । ४. पूर्णिया श्रावक की एक सामायिक भी तू खरीद ले । इस प्रकार नरक निवारण के चार उपाय प्रभु ने बताये (जो कि उससे होने असम्भव थे ) अब यहां यह विचार होता है कि यदि मूर्ति पूजा भी नरक निवारण और स्वर्ग प्रदान करने का कारण होती, इसमें आत्म कल्याण होता तो क्या प्रभु श्रेणिक को यह उपाय नहीं बताते ? क्या प्रभु इस उपाय को भूल गये थे ? स्वर्ग नहीं तो पुनः मानव भव ही सही, यदि इतना भी लाभ मूर्ति पूजा से होता तो प्रभु अवश्य बताते कि जिससे श्रेणिक का कुछ तो भला होता । वह तो प्रभु का अनन्य भक्त था, फिर उसे ऐसा उपाय क्यों नहीं बताया ? वास्तव में सम्राट श्रेणिक सामायिक या छोटा सा प्रत्याख्यान करने के लिए सर्वथा अयोग्य थे वे मन पर काबू नहीं कर सकते थे, उनसे व्रत नियम के बन्धन में रहते नहीं बनता था, इसी से उनका निविड़ पाप कर्म छेदित नहीं हो सका। जब वे आत्म-कल्याण की करणी के अयोग्य थे तब आत्मकल्याण की साधन कही जाने वाली आपकी मूर्ति पूजा से उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ? आप तो उन्हें १०८ स्वर्ण जसे पूजने वाला मानते हैं, फिर उनका नरक क्यों न रुका ? इसके सिवाय सुन्दर मित्र कहते हैं कि - "जिन स्वर्ण जौ को कुक्कुट खा गया था और जिनके कारण सोनी ने मेतार्य मुनि को महान् Jain Education International ********* * जबकि ज्ञानसुन्दरजी मूर्ति पूजा में दान, शील, तप और भावरूप चारों तरह का धर्म मानते हैं। (मू० पू० प्रा० इ० पृ० २६४ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy