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श्रेणिक और मूर्ति पूजा **公家来学学会¥*****交******李李************* मिलता है वहाँ-वहाँ उसके प्रभु वंदने, प्रश्नादि पूछने, अमारी पडह फिराने आदि का उल्लेख तो स्पष्टाक्षरों में मिलता है, उसकी रानियों के दीक्षा का वर्णन, पुत्रों का त्यागी होना, कोणिक की प्रभु भक्ति,
और युद्ध आदि का वर्णन तो प्रचुरता में मिलता है, किन्तु किसी भी वर्णन में मंदिर बनवाने या मूर्ति पूजा करने का नाम निशान भी नहीं मिलता। ऐसी सूरत में सुन्दर प्रमाण असत्य प्रमाणित होने में शङ्का ही क्या हो सकती है?
इससे सिवाय श्रेणिक को हमेशा १०८ स्वर्ण जौ से मूर्ति पूजा करने वाला लिखना भी मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों का पौराणिक सत्य (झूठ) से कम नहीं है। यदि इन लोगों की बात पर थोड़ासा विचार किया जाय तो यह हास्य जनक ही सिद्ध होंगी, क्योंकि -
एक तरफ तो ये लोग महानिशीथ में ऐसा फल विधान करते हैं कि मूर्ति पूजा करने वाला बारहवें स्वर्ग में जाता है। इधर श्रेणिक को नित्य १०८ स्वर्ण यव से पूजने वाला बताते हैं, इस हिसाब से तो श्रेणिक को स्वर्ग में ही जाना चाहिये, जबकि मामूली फूलों और चावलों से पूजने वाला भी बारहवें स्वर्ग में पहुंच सकता है तो सोने के यव से पूजने वाला कम से कम प्रथम स्वर्ग में तो जाना चाहिए? किन्तु जब हम इन्हीं लोगों के ग्रन्थों को देखते हैं तो ये महानुभाव सम्राट श्रेणिक को नरकगामी बताते हैं। कहिये मूर्ति पूजा का कैसा फल मिला? यह उलट फेर कैसा? * मूर्ति पूजक ग्रन्थकार यह लिखते हैं कि - जब प्रभु महावीर ने श्रेणिक को भविष्य में नरकगामी होने वाला कहा, तब वह खेद प्रकट करता हुआ प्रभु से नरक निवारण का उपाय पूछने लगा। प्रभु ने उत्तर में चार उपाय बतलाये यथा
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