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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा अतएव यह बात भी असंगत हुई, हमारे विचार से वहाँ जाने का मुख्य कारम नंदनवनादि की सैर करने का ही हो सकता है क्योंकि यह भी एक छद्मस्थता की पलटती हुई चंचल विचारधारा का परिणाम है, जब कोई मुनि जहाँ जाकर वन की सैर कर विश्राम लेते हों, तब यह सोचना स्वाभाविक है कि वास्तव में ज्ञानियों ने इन स्थानों की जो रचना बताई है वह यथातथ्य है। इस प्रकार सर्वज्ञ के प्रति विशेष श्रद्धा होना और इससे वहाँ स्तुति का भी होना संभव है। इस प्रकार इस प्रकरण का भाव पाया जाता है जो कि ऐसा करने वालों को आज्ञा भंजक बताने वाले सूत्र से स्फुट हो जाता है। यदि कोई यहाँ यह युक्ति दे कि वह आलोचना मार्ग दोष-निवृत्ति की है, तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि सूत्र में स्पष्ट " तस्स ठाणस्स अणालोइय" कहा है, जिसका अर्थ " उस स्थान की आलोचना नहीं करने से है, न कि मार्ग-दोषनिवृत्ति से । अतएव सिद्ध हुआ कि यह क्रिया ही आज्ञा विरुद्ध है। इसके सिवाय इसी प्रकरण पर से आप यह लिख बैठे हैं कि - शक्ति होते हुए तीर्थयात्रा करना क्या साधु और क्या श्रावक सबैका यह परम कर्तव्य है। इसी उद्देश्य को लक्ष में रख कर असंख्य भावुकों ने बड़े-बड़े संघ निकाल कर यात्रा की है। ( पृ० ६५) हाँ चलाते जाईये, खूब चढ़ा चढ़ा कर भोले भावुकों को पहाड़ों में भटकाइये, इसी में गुरु लोगों की पौ बारह है, मनमाने माल उड़ाना इसी में मिलता है। महाराज! ऐसी धर्म करणी तो भगवान् महावीर भी DR. My - Jain Education International नहीं बता सके, किन्तु मित्र सुन्दरजी। यहाँ तो आप चारण मुनियों के सहारे से यात्रा करना और संघ निकाल कर नायक बनने का फल निकाल रहे हैं, पर मेझरनामे” में आपने यह क्या लिख दिया १४१ 31 ******** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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