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________________ १४० NOTE मान आरमात्त पजा BALLAH . . . ...- ATE कहिये अब तो उतरी गेले? यद्यपि आगे चलकर इन्हीं सूरिजी ने मूर्ति वंदने को भी लिखा है और यहाँ भी आदि शब्द रखकर अपनी गुंजाइस रखली है तथापि हमारी युक्ति को पुष्ट करने में उक्त मन्तव्य पर्याप्त हैं। इसके सिवाय आपने भी पृ० १०२ में निम्न प्रकार से लिखा है कि - "शायद ऋषिजी ज्ञानी के गुणानुवाद को चैत्य वंदन ही समझते ही क्योंकि चैत्यं वदन में भी उन्हीं ज्ञानी तीर्थंकरों के गुणानुवाद ही आते हैं तो यह तो ठीक भी है, विद्याचारण, जंघाचारण मुनिवरों ने नंदन वन, पाण्डक वन, नन्दीश्वर, रुचक, मानुषोत्तर और स्वस्थान (जहाँ से गये थे) के मन्दिरों में जाकर चैत्य वंदन (ज्ञानी तीर्थंकरों का गुणानुवाद) किया था, इसमें हमारा मतभेद भी नहीं है।" पाठक समझ गये होंगे कि तीर्थंकर स्तुति की चैत्यं वन्दन सुन्दर मित्र ने भी माना है, जो कि हमारी युक्ति का पूर्ण रूप से आदर है। उक्त अवतरण मैं सुन्दर मित्र ने जो यह लिखा कि “मन्दिरों में जाकर" . ....... . ya n : ... यातना यह लि मित्र काम क्याकि मूल में कहीं भी ऐसे शब्द नहीं है कि "चारण मुनि मन्दिरों में जाकर चैत्य वंदन करें" अंतएवं ऐसी कपोल कल्पनों पर अधिक लिखने की आवश्यकता ही नहीं। ___ इसके सिवायं मानुषोत्तर पर्वत और रुचक पर्वत पर तो शाश्वती मूर्तिये भी नहीं हैं ऐसी सूरत में मूर्तियों को वंदने को जाने की आपकी दलील ठहर ही कैसे सकती है? और जहाँ शाश्वती मूर्तिये हैं, वे देवों के आधीन होकर उन्हीं के पूजनीय हैं, क्योंकि वे उन्हीं से सम्बन्ध रखती हैं, अर्थात् उन्हीं के वंश परम्परा से पुजाती हुई देवमूर्तियें हैं, तीर्थंकर प्रतिमा नहीं। (अधिक स्पष्टता के लिए सूर्याभ प्रकरण देखों) sayret - ....--. - . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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