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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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जावे और बिना आलोचना प्रतिक्रमण के काल कर जावे तो उसे भगवद् आज्ञा का विरोधी बतलाया है।
जब भगवती के इस प्रकरण से ही ऐसी प्रवृत्ति के लिए निषेधात्मक ध्वनि निकलती है तब सुन्दर मित्र का उक्त कथन तो साफ झूठ ही ठहरता है कि - " अन्य भव्यों के भावों में वृद्धि हो और वे यात्रा करने जायं, इस गरज से शास्त्रकार ने वह वर्णन किया" ऐसे सीधे साधे प्रकरण को ही उल्टा बताने लगे, उन्हें किस प्रकार समदृष्टि माना जाय?
महानुभाव सूत्र में आये हुए "चेइयाई वंदई" का भावार्थ भगवद् स्तुति से हे, मूर्ति वंदन से नहीं, चैत्य वंदन भी स्तुति का दूसरा अर्थ है। देखिये
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"जेकर मूर्ति न मिले तो पूर्व दिशा की तरह मुख करके वर्तमान तीर्थंकरों का चैत्य वंदन करे ।"
(विजयानंद सूरि लि० जैनतत्त्वादर्श पृ० ३०१ )
इस प्रकार भाव तीर्थंकरों के परोक्ष वंदन को भी चैत्यवंदन कहा है और भगवती सूत्र के उक्त प्रकरण का भी यही आशय है। जिस प्रकार मूर्ति पूजक साधु उपाश्रय में रहे हुए प्रातः सायं दोनों समय प्रतिक्रमण में चैत्य वंदन करते हैं वह भी बिना मूर्ति के परोक्ष वंदन ही होता है इसी प्रकार उक्त प्रकरण के लिए भी ऐसा मान लेना न्याय संगत होगा । हमारी इस युक्ति से मू० पू० आगमोद्धारक श्री सागरानंद सूरिजी भी सहमत होते हुए अपने “सिद्धचक्र" वर्ष ७ अङ्क २ ता० २३-१०-३८ के पृ० ३६ के "सागर समाधान" शीर्षक से लिखते हैं कि -
"जंघाचारण आदि मुनिओं पण नंदन आदि मां नमुत्थुणं आदि
थी भाव जिन आदिना वंदनो करे छे ।। "
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