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चारण मुनि और मूर्त्ति पूजा
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चारण मुनि और मूर्त्ति पूजा
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भगवती सूत्र श० २० उ०६ में भगवान् श्री वीर प्रभु से श्री गौतम स्वामीजी प्रश्न करते हैं कि "जंघाचारण, विद्याचारण मुनियों की तिर्यग्गति की शक्ति कितनी है ?” उसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया है कि " विद्याचरण मुनि एक उत्पात में मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करे और वहाँ चैत्य वंदन करके दूसरे उत्पात् में नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण करे, वहाँ चैत्य वंदन कर स्वस्थान आवे और चैत्य वंदन करे ।” आदि
इस वर्णन में से श्री ज्ञानसुन्दर जी चैत्य वन्दन शब्द को पकड़ करमूर्ति - पूजा सिद्ध करना चाहते हैं और लिखते हैं कि -
" यात्रार्थ चारण मुनि गये हों और अन्य भव्यों के यात्रा करने के भावों में वृद्धि हो, इस गरज से शास्त्रकारों ने इसका वर्णन किया हो तो यह है भी यथार्थ कारण शक्ति के होते हुए तीर्थयात्रा करना क्या साधु और क्या श्रावक सब का यह प्रथम कर्त्तव्य है । इसी उद्देश्य को लक्ष में रखकर असंख्य भावुकों ने बड़े-बड़े संघ निकाल कर यात्रा की है ।" आदि ( पृ०१५)
प्रथम तो यह बात ही मिथ्या है कि- "कोई चारण मुनि यात्रार्थ गये हों" क्योंकि सूत्र में तो केवल शक्ति का परिचय बताया है, यह नहीं लिखा कि कोई मुनि वहाँ मूर्ति पूजा करने या वंदना नमस्कार करने गया हो । उल्टा सूत्र में तो इस प्रकार अपनी शक्ति का उपयोग करने (लब्धि फोड़ने ) गले को आज्ञा भंजक कहा है, पर यदि कोई सुनी हुई को देखने की इच्छा से आज्ञा विरुद्ध भी शक्ति का दुरुपयोग करके
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