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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १३७ .. ..... विशेष विचार करने पर यह भी पाया गया कि शायद समय समय की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियाँ हो, किसी समय किसी वस्तु का उपयोग पहले होता हो, और किसी समय पीछे, आज भी बहुत से ऐसे हैं जो स्नान के बाद शिर में तेल डालकर मलते हैं, और बहुत से स्नान के पूर्व ही। इस तरह विचार कर ही रहे थे कि हमारी दृष्टि श्री दशाश्रुतस्कन्ध के एक पाठ पर पड़ीं, जिससे हमारी धारणा मजबूत हुई, देखिये वह पाठ “सव्वाओ कसाय-दंत कटु-पहाण-मद्दणविलेवण" आदि (दशा ६) यहाँ प्रथम स्नान और फिर मर्दन और बाद में विलेपन बतलाया है, इस सूत्र पाठ से तो सन्देह ही नहीं रहता और हमारी धारणा को ही पुष्टि मिलती है कि पूर्वकाल में इस प्रकार की भी प्रथा थी, शायद इसके पढ़ लेने से सुन्दर मित्र की शङ्का भी दूर हो जायगी? हमारा सुन्दर मित्र से यही कहना है कि - भाई! बिलकुल "केशरी' (?) ही मत बन बैठो। मिथ्या प्रपञ्चों द्वारा जाल फैलाकर भोंदू भेड़ियों में केशरी कहलाना कोई बड़ी बात नहीं है, आप तो क्या आपके सैकड़ों विद्वानों की भी शक्ति नहीं, जो मूर्ति पूजा को धर्मकृत्य और आगम आज्ञा युक्त सिद्ध कर सके इस प्रकार कथाओं और शब्दों की मिथ्या ओट लेने से समझदारों के सामने आपका पाखण्ड किसी भी तरह ठहर नहीं सकता। अरे, जिस क्रिया को धर्म का मुख्य अङ्ग कहा जाय, जो वर्द्धमान भाषित बताई जाय, उसके लिये उसी के प्रचारक वर्द्धमान आज्ञा का एक शब्द भी नहीं बताकर इधर उधर हाथ पैर पटकें, यह कितना निर्बलता और निर्लज्जतापूर्ण हठधर्मिता हैं। क्या अब भी सुन्दर मित्र सीधे मार्ग पर आयेंगे? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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