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१३६ तुंगिका के श्रमणोपासक ******************************李***客來平平平平平平 देव पूजा नहीं क्योंकि बलिकर्म स्नानगृह में किया जाता है जहाँ कि देव मूर्ति या मन्दिर का कोई सम्बन्ध नहीं। - इस प्रकार बलिकर्म अर्थ से गोत्र देवता के पूजन का अर्थ भी असंगत ठहरता है। आप ही के समाज के विद्वान् पं० बेचरदासजी दोशी की जिन्होंने पहले भगवती सूत्र में यही अर्थ किया है वे भी अभी इस अर्थ में सन्देह करते हैं, देखिये उनके हाल ही के (सं० १९६४ के) अनुवादित और शुद्ध किये हुए “रायपसेणइय सुत्त नो सार" पृ० २६ का फुट नोट नं०५६ -
“कोई गृहस्थ ज्ञानी पासे धर्म सांभलवा जाय के राज दरबार मां जाय त्यारे “बलिकर्म' करीने जाय-एवा अनेक उल्लेखों जैन आगमों मां विद्यमान छे, पण ए बलिकर्म शुं छे? ते सम्बन्धी स्पष्ट माहिती मलती न थी, “पोत पोताना गृहदेवो पासे बलि चडाववी-निवेद्य धर-भेंट धरवी" एवो बलिकर्म नो अर्थ टीकाकारे आपेलो छे, आमां “गृह देवता" कोण अने तेनो शुं स्वरूप-ए प्रश्न उभो रहे छ।'
इस प्रकार गृह देवता की पूजा करने का अर्थ स्वयं आपके विद्वानों को ही शङ्कास्पद है, तब ऐसी सूरत में और हमारे ऊपर बताये हुए प्रमाणों से आपके कुतर्क का उन्मूलन होकर मूर्ति पूजा की सैद्धान्तिक कमजोरी स्पष्ट होने में खामी ही क्या है?
- चालू प्रकरण में सुन्दर मित्र की एक युक्ति पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक समझता हूँ। आपने इसी प्रकरण के ८७ वें पृष्ठ में लिखा कि - "स्नान के बाद पीठी (तेल आटा मिश्रित मालिश) करी xxx क्या कोई समझदार व्यक्ति स्नान करने के बाद मालिश करते होंगे? कदापि नहीं।" . जो हमारे विचार से भी यह युक्ति कुछ उपादेय मालूम हुई, किन्तु
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