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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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वाचनान्तर में होना लिखकर टीका ही में रखते हैं, मूल में नहीं और प्राचीन प्रतियें भी यही बताती हैं कि इन बारह अक्षरों के सिवाय मूल पाठ में नमुत्थुणं या सूर्याभ साक्षी आदि कुछ भी नहीं है फिर मूर्ति पूजा के रंग में रंगे हुए महानुभावों के प्रक्षिप्त किये हुए अधिक पाठ को प्रमाण में देकर अपना मत दूसरों पर लादना यह कहाँ का न्याय है? वास्तव में देखा जाय तो लोंकागच्छीय यतियों ने और आगमोदय समिति के आगमोद्धारक ने द्रौपदी विषयक नमुत्थुणं आदि अधिक पाठ मूल में बढ़ाकर आगम की असलियत को बिगाड़ने के अलावा अपने ही टीकाकार के मंतव्य का विरोध किया है । सुन्दर मित्र ! हमारी समाज ने नमुत्थुणं आदि पाठ निकाला नहीं, पर मूर्ति पूजकों ने ही मूल सूत्र में अधिक बढ़ा दिया है अतएव आपका तर्क इतने मात्र से टूट गया। इसके सिवाय आपने इस विषय में हमारी ओर के श्री मज्येष्टमल्लजी महाराज और श्री हर्षचन्दजी महाराज की पुस्तकों का प्रमाण देकर णमोत्थुणं आदि पाठ की असलियत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, अब उस पर विचार करते हैं -
समकित सार का पाठ
हम पहले बता चुके हैं कि हमारा साहित्य बड़े लम्बे समय से मूर्तिपूजक यतियों के हाथ में रहा और श्रीमान् लोकाशाह ने जब मूर्ति पूजकों को वीरधर्म रहित घोषित किया तब आगमों में भी मूर्ति पूजकों को फेरफार करने की आवश्यकता दिखाई दी और परिवर्तन कर भी
डाला ।
इसके बाद सुविहित - सुसाधुओं की वृद्धि का समय आया, जिस निकृष्ट काल में ये महानुभाव नाम मात्र के थोड़े से रह गये थे । ये
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