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द्रौपदी और मूर्ति पूजा ***定*本*************空***********年*****本本中 फिर समय की अनुकूलता से अधिक परिवार वाले होते गये और जैन शासन का (श्रमण संघ का) सृष्टि में प्रभाव बढ़ाते गये। ऐसे समय आवश्यकता पड़ने पर जैसी आगम प्रतियें इन्हें मिली, उन्हीं से काम चलाते गये। पाठक भूले नहीं होंगे कि ऐसी प्रतियों में अधिकता उन्हीं यतियों के हथकंडों से दूषित हुई प्रतियों की थी, बस उन्हीं पर विश्वास रखकर कार्य चलाना पड़ा। श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज ने समकितसार में भी ऐसी ही किसी दूषित प्रति का उपयोग किया हैं क्योंकि प्राचीन प्रतियों और टीका से यह तो सिद्ध हो गया कि मूल पाठ में नमुत्थुणं आदि अधिक पाठ नहीं है। एक तटस्थ मूर्ति पूजक भी प्राचीन प्रतियों और टीका के देखने पर यही निर्णय देगा कि-वास्तव में नमुत्थुणं आदि पाठ पीछे से भूल में मिलाया गया है फिर यह मानने में शङ्का ही क्या है कि मज्येष्ठमलजी महाराज ने किसी दूषित प्रति का ही उपयोग किया हो?
मित्र सुन्दरजी! आपका समाधान तो समकितसार का दूसरा भाग ही कर देता है आप जरा आँख खोलकर निम्न अवतरण को पढ़िये -
“पूजा करवा गई ते ठेकाणा नो पाठ एक घणी मुद्दत नी लखाएली ज्ञाताजी ना मूल पाठ मां तो नीचे लखवा मुजब छे -
"जिण पडिमाणं अच्चणं करेइ करेइत्ता"
“ए पाठ सिवाय मूल मां नमोत्थुणं या चैत्यवंदन या प्रदक्षिणा या तिक्खुत्तो इत्यादिक सूरियाभ देवनी भलामणनो किंचित पाठ नथी, कारण के दिल्ली शहर मां उदयचन्दजी जति छे तेमनी पासे छसो वरस नुं ज्ञाता सूत्र लखाएलुं छे तेमज कनैयालालजी गृहस्थ पासे घणा वरसो ऊपर लखाएली जुनी ज्ञाता छे, ते बे सूत्रो नो पाठ परस्पर मलतो छे, एटलुंज नहीं पण ते सूत्रो त्यांज हाजर छे, माटे आकांक्षा वाला
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