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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 李********** ********************本****
ओए जोइ लेवं, त्यार पछी नी लखावट मां आवेली थोड़ा वरसों नी ज्ञाताजी नी प्रतो मां आवडो फेर थयो छे, तो तेमां थयेलो फेरफार कल्पित संभवे छे।"
(समकितसार भाग २ पृ० ३८) और देखिये -
“वली आ ठेकाणे कहेवानु जे ज्ञाताजी नी नवी प्रतो मां वाचनांतरे द्रौपदी ना अधिकारे नमोत्थुणं नो पाठ जोवा मां आवे छे, परन्तु श्री भरुच शहेर ना भंडार मां ताडपत्र ऊपर लखेली ज्ञाताजी सवा आठ से वरसनी छे ते मध्ये पण कयबलिकम्मा ना प्रश्नोत्तर मां लख्या प्रमाणे पाठ छे, माटे जुना पुस्तको ना आधार थी मालम पड़े छे के विशेषण पाठ छे ते कल्पनाकरी नाख्यो जणाय छ।" (समकितसार भाग २ पृ० ५१)
उक्त समकितसार भाग २ के उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया कि प्रथम भाग में श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज ने जो पाठ दिया है, वह प्रक्षिप्त पाठवाली ज्ञाता से ही दिया है और बाद में अन्वेषण से जो प्राचीन प्रतियें उन्हें मिली हैं, उस पर से उन महानुभाव ने दूसरे भाग में इसका स्पष्टीकरण कर दिया है, इससे तो श्री मज्मेष्ठमल्लजी महाराज के शुद्ध एवं सत्यमानस का परिचय मिलता है उन महात्मा ने प्रथम जैसा देखा वैसा ही लिख दिया, उसमें अपनी ओर से कुछ भी न्यूनाधिक नहीं किया और जब बाद में उन्हें मालूम हुआ कि पहले जो पाठ दिया है वह ठीक नहीं है, तो सत्य मालूम होने पर पूर्व के पाठ का निराकरण कर दिया।
सुन्दर बन्धु! वास्तव में प्राचीन प्रतियों में “नमुत्थुणं' आदि अधिक पाठ नहीं है। मैंने स्वयं दिल्ली में लाला मन्नूलालजी अग्रवाल के पास ज्ञाता सूत्र की प्राचीन प्रति देखी, जो बहुत जीर्ण थी, उसमें आपका बताया हुआ अधिक पाठ है ही नहीं और यह वही प्रति है
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