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द्रौपदी और मूर्ति पूजा *******************************************
(२) श्रीपत्तन (पाटण) मां चैत्यवासी आचार्यों सुविहित साधुओं ने त्यां रहेवा न देतां विघ्न करे छे। (प्रभावक चरित्र भाषांतर पृ० २५६)
इस प्रकार यति लोगों ने सुविहितों पर भारी जुल्म किया था, इतना ही नहीं इनके जुल्म से आगम साहित्य भी वंचित नहीं रह सके। इसमें भी उन लोगों ने इच्छित परिवर्तन कर दिया, आप स्वयं अपने "मेझरनामे" की २२ वीं ढाल में लिखते हैं कि - "अजित शांति ना अंत मां, गाथा हो? मिलावी साथ। गा० १५ मंदितु सूत्र सिद्ध दंडके, जयवीयराय हो गाथा दीधी भेल। गा० १७ प्रत्यक्षपाठ सिद्धांत मां, ते लोपी हो? माने कल्पित । गा० २५
इस प्रकार सूत्रों में भी कई प्रकार का परिवर्तन कर डाला है फिर भी कुछ कुछ यति लोग शिथिल होते हुए भी आगमों को जैसे के तैसे रखने के विचार वाले भी थे। उनके पास जो प्रतियें रहीं वे तो शायद शुद्ध रह सकी हों, पर स्वार्थी और मतमोही के पास वाली प्रतियों में अवश्य गड़बड़ हुई है, प्रस्तुत विषय में ज्ञाता धर्मकथांग के द्रौपदी सम्बन्धी नमुत्थुणं आदि पाठ भी काल बल से मूल में जा विराजा है, आज वर्तमान समय में भी ज्ञाता सूत्र की प्राचीन प्रतियें उपलब्ध है, जिनमें कि नमुत्थुणं आदि पाठ बिलकुल नहीं है। यह बात केवल हम ही कहते हैं ऐसा नहीं समझें, किन्तु स्वयं आप ही के मूर्ति पूजक टीकाकार श्री अभयदेव सूरि द्रौपदी सम्बन्धी पूजा के पाठ की टीका करते हुए लिखते हैं कि -
"जिण पडिमाणं अच्चणं करेइति" एकस्यां वाचनाया मेतावदेव दृश्यते "वाचनान्तरेतु" आदि
देख लिया सुन्दरजी? आप ही के टीकाकार महाशय केवल बारह अक्षर वाले पाठ को ही मूल में स्थान देकर बाकी के लिए
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