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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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पर अटल श्रद्धा रखने वाले ही सच्चे वीर वंशज हैं और जो लोग गपोड़ों को भी आगम समान मानते हैं, उन्हें अर्हन्वाणी बताते हैं, वे वास्तव में श्री वीर पिता के कुल कलंक रूपी कपूत हैं, उनके ऐसे कर्त्तव्यों से शासन हितैषियों को क्षोभ होना स्वाभाविक ही है।
अतएव मूर्ति पूजा के प्रतिपादक, समर्थक और विधिदर्शक ग्रन्थ आगमवाणी से विपरीत होने से उपेक्षा करने के ही योग्य है।
(३९)
मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण-संग्रह
श्री ज्ञानसुन्दर जी ने पृ० १२६ में लिखा है कि "भगवान् महावीर ने मूर्ति पूजा का विरोध कहीं भी नहीं किया इसलिए यह समझना चाहिये कि भगवान् महावीर भी इस कल्याणकारी कार्य में सहमत थे।"
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तथा मूर्ति पूजक पत्र "जैन ध्वज" ता० १७- ८-३६ पृ० ५ पर भी आप लिखते हैं कि
'महावीर मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी नहीं पर कट्टर समर्थक थे।' इस प्रकार मन से मोदक बनाने वाले तो चाहे सो मान ले, उन्हें प्रमाणित तो करना ही नहीं है, वहाँ तो हाथी के दांत सिर्फ दिखाने के ही हैं।
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सुन्दर मित्र को यह नहीं सूझा कि भगवान् महावीर के समय मूर्ति-पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन समाज में थी ही नहीं । फिर उसका मंडन या खंडन हो भी कैसे ? भगवान् महावीर के समय जितने मतमतांतर थे उनमें से बहुतों के विषय में आगमों में उल्लेख मिलता है, श्री गौतम स्वामीजी ने अन्य तीर्थिकों की मामूली बातों की भी
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