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________________ २७८ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता ********************************************* जाय, तो उन्हें शक्रेन्द्र के दर्शन हो सकेंगे और पर्वत कर के साठ हजार से माफी मिलने के साथ ही पालीताना राज्य भी शक्रेन्द्र की कृपा से सूरिजी.......नहीं नहीं आनंदजी कल्याणजी की पेढ़ी को मिल जायगा? ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिये। यदि दो चार महीने प्रयत्न करना पड़े तो करना चाहिए। इतना बड़ा लाभ उठाने में कुछ दिन शक्रेन्द्र की राह देखनी पड़े तो क्या बड़ी बात है? शायद शक्रेन्द्र दो चार महीने विलम्ब से आवे? यदि एक सूरि से इतने दिन एक जगह नहीं ठहरा जाय तो कुछ सूरिवरों को मिलकर अपनी सुविधानुसार समय निर्धारित कर पहरा ठोक देना चाहिए। सुज्ञ पाठकवृन्द! देखली मूर्ति पूजा के समर्थक ग्रन्थों की हालत? क्या ऐसे गपोड़ शास्त्र भी आगम सम्मत हो सकते हैं? क्या दृष्टिवादांग ऐसे ही पाखण्डों से भरा था? वास्तव में संघपट्टक की प्रस्तावना के लेखानुसार यह सब बातें सावद्याचार्यों ने मनःकल्पित गढ़ डाली है और अपने पाखण्ड को जैन मान्य कराने के लिए ऐसे ग्रन्थों को दृष्टिवाद का अंश बता दिया है। हमारे सुन्दर मित्र भी उसी तरह ऐसे ग्रन्थों को भी आगम सम्मत और दृष्टिवाद का अंश बताकर मनवाने की चेष्टा कर रहे हैं। सुन्दर मित्र! ऐसे ग्रन्थों को हम नहीं मानते हैं इससे आप को दुःख होता है और इसीलिए आप हमें वीर वंशज नहीं मानते हैं, भले ही आप अज्ञान वश अपना हठ न छोड़ें, किन्तु हम तो स्पष्ट कहते हैं कि जो लोग ऐसे पाखण्ड पुराणों को आगम की तरह मानते हैं वे सम्यक् श्रद्धान से बहुत दूर हैं क्योंकि ये ग्रन्थ आगमों से विपरीत और संसारवर्द्धक है, ऐसे ग्रन्थों को अप्रामाणिक घोषित कर मूल आगमों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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