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क्या सदाचार आदि के लिए मूर्त्ति पूजा आवश्यक है
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है और लिखा है कि तप जपादि करने की कोई आवश्यकता नहीं, पाप से डरने की ही जरूरत है, केवल शत्रुंजय का स्मरण किया कि सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । जिसने केवल बहुरूपिये की तरह साधु वेष पहिन लिया है ऐसे वेषधारी को भी शत्रुंजय पर्वत पर गौतम गणधर के समान समझो और उसका गौतम पात्र मिष्ठान्न से पूर्ण भरदो" इत्यादि ।
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ऐसे ही अन्धविश्वास और पाखण्ड प्रवर्त्तक ग्रन्थों की स्वाध्याय कर, और सुन्दरजी जैसे गुरुओं के मुख से ऐसी बातें सुन कर बेचारे भोले लोग भ्रम में पड़ जाते हैं । सोचते होंगे कि अब सदाचार आदि का काम ही क्या है? शत्रुंजय का स्मरण या वहाँ जाकर पूजा की कि बस सब पापों का नाश हो जायगा । इस तरह मूर्त्ति पूजा के खोटे चक्कर में पड़कर भद्र लोग सदाचार और शांति से हाथ धो बैठते हैं। और व्यर्थ के आस्रव सेवन आदि पापों से अपनी आत्मा को भारी बना लेते हैं। अतएव सिद्ध हुआ कि मूर्ति-पूजा के पीछे ही अन्धविश्वास में पड़कर लोग सदाचार शान्ति और सुख से वंचित रहते हैं । अतः मूर्त्ति पूजा सदाचार शान्ति और सुख की घातक होकर दुःख और पतन का कारण सिद्ध होती है।
यदि साधारण तौर पर विचार किया जाय तो जितनी हत्यायें भारतवर्ष में मूर्त्ति पूजा की आड़ में हुई, और होती हैं, उतनी दूसरी तरह से नहीं । विषय विकार के पोषण में भी कभी-कभी कहीं-कहीं मूर्त्तियों के स्थान ही कारण रूप बन गये। मन्दिरों और मूर्तियों की श्रृंगार सामग्री - बहुमूल्य आभूषण आदि सम्पत्ति ही गिरे हुए लोगों को लुभा कर चोरी जैसे निंदनीय कार्य तक करने की प्रेरणा करती है। समाचार पत्रों के पाठकों से यह बात गुप्त नहीं है कि मन्दिरों में
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