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२२६ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ********学本产**** ********* ************** स्वांग पहिन ले, इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है? इसके सिवाय अन्वेषक भी ऐसे सर्वज्ञ तो नहीं कि असलियत को यथा तथ्य जान लें! आखिर वे भी तो अनुमान से ही काम लेते हैं।
जाली दस्तावेजों के भी कई मामले न्यायालयों में आते हैं, अन्य की बात छोड़िये। कुछ वर्षों पूर्व जब श्वेताम्बर मूर्ति पूजक बन्धुओं के व दिगम्बर भाइयों के, तीर्थों के पहाड़ों को लेकर अधिकार विषयक मुकद्दमें हाइकोर्टों में चले थे, उस समय श्वेताम्बर मूर्ति पूजक की ओर से कुछ बादशाही फरमान प्रमाण रूप में पेश किये थे किन्तु विशेष जाँच पड़ताल से वे फरमान बनावटी ही ठहरे। न्यायाधीश ने उन्हें एकदम कृत्रिम घोषित कर दिया।
(केशरिया तीर्थ हत्याकाण्ड पृ० १३५-१३८) प्रतिमाओं पर जाली लेख खुदवाने की कार्यवाहियाँ होना भी असंभव नहीं। निम्न प्रमाण देखिये -
जैन सत्य प्रकाश में मूर्तियों पर के आठ लेखों की आलोचना करते हुए मुनि श्री कल्याणविजयजी (जो स्वयं मूर्ति पूजक विद्वान् हैं) लिखते हैं कि -
“यदि ये लेख पाषाण मूर्तियों पर खुदे हुए हैं तब तो यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है कि लेख “जाली' है। क्योंकि तब तक मूर्तियों के मसूरक पर लेख खुदवाने का रिवाज नहीं चला था यह रिवाज विक्रम की पन्द्रहवीं सदी से प्रचलित हुआ है।"
यदि लेख धातु की मूर्तियों पर अथवा पाषाण की मूर्तियों के सिंहासनों पर खुदे हुए हों तब भी इनके “जाली' होने में कुछ भी सन्देह नहीं है। हमारे इस निर्णय की सत्यता नीचे के विवरण से प्रमाणित होगी।
(जैन सत्य प्रकाश वर्ष ५ अंक ८)
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