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________________ २०६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा **京************************************** साधुमार्गी समाज की मान्यता ही मूर्ति पूजने की है, यह तो एक प्रकार का विकार है जो मूर्ति पूजकों के अति संसर्ग से या देखा देखी से हो गया है। इसे एक-देशी विकार जरूर कह सकते हैं, किन्तु सर्व देशी सिद्धान्त नहीं। न कोई साधुमार्गी समाज का सुज्ञ श्रावक किसी चित्र या मूर्ति आदि को गुरु आदि मानकर पूजता है, न ऐसी जड़ पूजा में धर्म समझता है। फिर सामान्य जनता के किसी अंश में विकार होने मात्र से सारी समाज को या उसके सिद्धान्तों को ही वैसा बताना जनता को धोखा देना है। ____ आपको अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि साधुमार्गी समाज तथा इसके सिद्धान्त किसी भी चित्र या मूर्ति को वंदन या पूजादि करने में धर्म नहीं मानते हैं, न ऐसी प्ररूपणा करते हैं, बल्कि ऐसी मान्यता रखते हैं “कि जो लोग मूर्ति पूजा में धर्म मानकर त्रस तथा स्थावर जीवों की व्यर्थ हिंसा करते हैं वे अनसमझ और धार्मिक तत्वों से अनभिज्ञ हैं, यह उनका अज्ञान है।" (३२) विकृति का सहारा उच्च संस्कृति का मूल रूप में अधिक समय तक रहना महान् कठिन है जब तक उसके प्रचारकों में ज्ञान बल, चरित्र बल, तत्परता एवं कुशलता रहती है, वातावरण अनुकूल रहता है, तब तक ही उसकी मौलिकता कायम रहती है। किन्तु जहाँ थोड़ी सी भी शिथिलता और परिस्थिति की विषमता आई कि विकृति ने जोर लगाया, बढ़ते-बढ़ते मूल संस्कृति को दबाकर विकृति स्वयं मौलिकता धारण कर बैठती है। अमूर्ति-पूजक समाजों में भी मूर्ति पूजा इसी विकृति की देन है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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