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२०८ साधुमार्गी जैन मूर्तिपूजक नहीं है ********************************************** है। इसी प्रकार मूर्ति पूजकों तथा अन्ध श्रद्धालुओं के संसर्ग दोष से साधारण जनता जो धार्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ है और केवल कुल परम्परा से साधुमार्गी समाज में है, उनके द्वारा ऐसी समाधियें आदि पूजे जायं तो इतने मात्र से साधुमार्गी समाज मूर्तिपूजक नहीं बन सकती। इसके सिवाय साधुओं के चित्र के विषय में हमारा यही कहना है कि जो भी ये चित्र परिचय मात्र के लिए है, वन्दने पूजने के लिए नहीं और परिचय तक चित्रों की हद मानना उचित है, तो भी चित्रों का साधारण लोग दुरुपयोग नहीं करले तथा चित्रों के बनाने से हिंसा और आत्मश्लाघा होना आदि अनेक दोषों को जानकर हमारी समाज के साधु महात्माओं ने अपने बृहद् सम्मेलन में एक प्रस्ताव द्वारा इस प्रथा का निषेध कर दिया है। इस पर से सुन्दर जी को समझ लेना चाहिये कि - हमारी समाज चित्र दर्शन आदि की पक्षपाती नहीं है, किन्तु हमें तो सुन्दर मित्र की मिथ्याभाषिता पर आश्चर्य होता है, वे हमारी समाज के सिद्धान्तों को जानते हुए भी मूर्ति के पक्ष में पड़कर निम्न प्रकार लिखते हैं कि -
परमेश्वर की मूर्ति नहीं पानने वाला स्थानक समाज अपने मृत साधु साध्वियों की किस प्रकार पूजा करता है?........ “परमेश्वर की मूर्ति को नहीं मानने वाला समाज अपने गुरु की मूर्ति की किस प्रकार पूजा करते हैं?"......पूज्यों की मूर्तियों को भक्त अपने स्वच्छ मकानों में रख प्रातः समय दर्शन कर तथा धूप उखेवकृत कृत्य बनें" आदि।
इस प्रकार सुन्दर मित्र ने सारी स्था० समाज को ही मूर्ति पूजक बता दिया। किन्तु इन्हें पक्षपात को छोड़कर विचार करना चाहिए कि कतिपय साधारण जनता के इस प्रकार चित्रादि को रखने का समाधि बनवाने मात्र से सारी साधुमार्गी समाज मूर्तिपूजक नहीं बन सकती, न
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