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विकृति का सहारा
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प्रधान कारण है मूर्तिपूजक बन्धु का संसर्ग दोष । हिन्दुस्थान के सभी समाजों में सुज्ञ एवं सुसंस्कार सम्पन्न लोग थोड़े ही मिलेंगे, अधिक जनता अज्ञता के चलते संसर्ग दोष एवं अंधविश्वास के चक्कर में आ जाती है अपने मत के प्रति अनुराग रखते हुए भी अन्धविश्वास के कारण प्रतिकूल आचरण सामान्य जनता में पाया जायगा ।
संसार में प्रायः सभी लोग दुःख का अनुभव करते है, कोई धन का, तो कोई कुटुम्ब का, कोई शारीरिक दुःख का, तो कोई आपत्ति आदि के भय का, इस प्रकार किसी न किसी रूप में दुःख का अनुभव सभी करते है। जो दुःखी है, दुःख का अनुभव करते हैं वे सुख प्राप्त करने का यत्न भी करेंगे। किन्तु अज्ञानतावश सर्प मूसक न्याय से उल्टा प्रयत्न भी कर बैठते हैं। जैसे कि -
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कितनी ही हिन्दू ललनायें सन्तान प्राप्ति के लिए पीर पैगम्बरों का आश्रय लेने दौड़ती हैं, दरगाहों और ताजियों को पूजती हैं और परिणाम में उन्हें एक नये ही दुःख का शिकार बनना पड़ता है।
कितने ही अर्थ संकट ग्रस्त जैन भाई धन या जन के कारण भैरव, भवानी, काली चामुंडा आदि देव देवियों की शरण में जाकर उल्टी हानि उठाकर अधिक दुःखी होते हैं।
यह सब प्रयत्न धार्मिक सिद्धान्त के विरुद्ध होते हुए भी संसार ताप से शान्ति पाने के लिए साधारण लोग करते हैं, इसका मुख्य कारण अज्ञान जनित बहम है।
आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री लिखते हैं कि -
"अंध विश्वास और कुसंस्कारों ने ही करोड़ों हिन्दुओं को मूर्ति 'के कुकर्म में फांस रखा है । " ( " धर्म के नाम पर " पृ०४६)
पूजा
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