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________________ २२८ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ******* ********* ****** भी आत्मकल्याण रूप धर्म से इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हो सकता, यह मात्र स्मारक वस्तु ही कही जा सकती है । ३ प्राचीन होने मात्र से उपादेय नहीं फिर भी यदि श्री ज्ञानसुन्दरजी मूर्तियों के प्राचीन होने मात्र से इन्हें पूजने या इसमें धर्म मानने की दुहाई दें तो यह भी बुद्धि गम्य नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, लोभ, मोह, द्वेष, क्रोध, अहंकार, माया आदि दुर्गुण हजारों लाखों वर्ष के ही नहीं किन्तु अनादि काल के हैं। इसलिए मात्र प्राचीनता को ही पकड़कर मानने का आग्रह करने वाले को तो इन दूषणों को भी उपादेय मानना चाहिए? यदि ऐसा हो तो संसार में पाप नाम का कोई शब्द नहीं होना चाहिये । सुन्दर मित्र ! रोग पुराना होता है, और उपचार भी पुराना, किन्तु समयापेक्षा रोग पुराना कहा जाकर उपचार नया कहा जाता है। दुर्गुण पुराने और उसके प्रतिकार में सद्गुण प्राचीन होते हुए भी उस युग में नया ही दिखाई देता है। जैसे कि - जहाँ हत्या, लूट आदि अनर्थ अधिक मात्रा में और बहुत समय से चलते हों, वहाँ इनको हटाकर अहिंसा, रक्षा आदि से शांति फैलाना समयापेक्षा नूतन ही कहा जाता है, क्योंकि इस समय के मनुष्यों को इस सुखद स्थिति का अनुभव इस जन्म में पहले नहीं हुआ, इसलिए वे इसे नया ही कहते हैं । ( पर वास्तव में ये गुण भी प्राचीन ही है) किन्तु विवेकी और सुज्ञ जनता केवल हेय उपादेय को ही देखती है नये पुराने को नहीं । एकान्त पुराने का आदर कर नये का अनादर करने वाला राजप्रश्नीय सूत्र के न्यायानुसार लोह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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