SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ****************************************** वणिक की कोटि का होकर अन्त में पश्चात्ताप करने वाला होता है वह लोह वणिक भी अपने कुछ समय पहले के ग्रहण किये हुए लोह को ही पुराना मानकर और स्वर्ण रत्नादि को लोहापेक्षा नूतन मानकर हेय समझता रहा। उसने यह सोचने का कष्ट नहीं उठाया कि वस्तुयें दोनों प्राचीन अनादिकाल की है, केवल मेरे ग्रहण करने मात्र से एक पहले की या दूसरी पीछे की नहीं हो सकती। मुझे तो वस्तु का मूल्य या गुण दोष देखना चाहिए, यदि इतना विचार भी उस लोह वणिक को होता वो वह दुःखी नहीं होता। ठीक इसी तरह ये लोग अपनी मूर्ति पूजा की प्राचीनता बताकर उसे उपादेय कहते हैं, और जिनागम सम्मत शुद्धाचार पालने वालों को नूतन कहकर हेय बताते हैं, किन्तु इन्हें समझना चाहिये कि भले ही हमारी दृष्टि से यह समाज अधिक प्राचीन नहीं दिखाई दे, किन्तु इसकी मान्यता, श्रद्धा प्ररूपना उपदेश आदि भगवान् महावीर के आज्ञानुसार है। इसलिए यह प्राचीन है। हम अपनी दृष्टि से ही देखकर गुणों की उपेक्षा और अवगुणों का आदर कर रहे हैं यही हमारी भूल है। यदि इतनी भी इनको समझ आ जाय तो यह आस्रव वर्द्धक मूर्ति पूजा इनका पीछा जल्दी से छोड़ दे। ये स्वयं जानते हैं कि जैसा उपदेश आदेश और आचार व्यवहार विचार आदि साधुमार्गी समाज के साधुओं का है वैसा ही भूतकाल के (तीर्थंकर काल के) मुनियों का था, जिसके लिए वर्द्धमान प्रभु के प्रवचन साक्षी हैं, किन्तु फिर भी पुद्गलानन्दी होकर व्यर्थ निन्दा कर आत्मा को भारी करते हैं, यही खेद की बात है। जबकि तीर्थंकर भगवान् महावीर के बताये हुए आचार विधान में मूर्ति पूजा का नाम निशान भी नहीं है, और शुद्ध, ज्ञान दर्शन चारित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy