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शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव
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कदापि नहीं । यहाँ नाम धाम की कोई बाधा नहीं है, यह तो केवल मूर्ति मति महानुभावों का मतमोह ही है । अतएव विमानवासी देवों में और तिर्छे लोक में जहाँ भी जिन प्रतिमायें हैं वे सभी जगह अधिक संख्या में होते हुए भी केवल निर्धारित चारों नाम की होने के कारण तीर्थंकर की नहीं है, जबकि भविष्यत् उत्सर्पिणी काल में होने वाले २४ तीर्थंकरों की नामावली में इनमें से एक का भी नाम नहीं है तब सुन्दरजी की तर्क ठहर ही कैसे सकती है ? इतने विशद विचार से यह स्पष्ट हो गया कि देवलोक स्थित प्रतिमायें तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है ।
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(२) सूर्याभ साक्षी की अनुपादेयता
सुन्दर बंधु ने मूर्ति पूजा में धर्म और इसे आगम आज्ञा युक्त ठहराने के लिए सूर्याभ की साक्षी देकर अपनी कमजोरी ही प्रकट की है, क्योंकि सूर्याभ देव का यह कार्य कोई धार्मिक कार्य नहीं किन्तु विमान सम्बन्धी संसार व्यवहार का कार्य है। संसार में रहा हुआ सम्यग्दृष्टि जीव सांसारिक व्यवहार का भी पालन करता है साधारण मनुष्य ही नहीं पर गृहस्थावस्था में रहे तीर्थंकर प्रभु भी अपने माता पिता को नमस्कार करते हैं, चक्रवर्ती पन में चक्ररत्नादि की पूजा और अन्य आवश्यक व्यवहारों का यथा समय पालन करते हैं, (साधु अवस्था में नहीं) इसी प्रकार सूर्याभदेव भी देवपने में उत्पन्न होने पर वहाँ के विमानगत परम्परानुसार चले आये आचार का पालन किया। इसमें धर्म मानने की कोई बात ही नहीं है ।
जिस प्रकार वर्तमान समय में देशी राज्यों के नरेश दशहरे के अवसर पर ढाल, तलवार, बन्दूक, तोप, घण्टा, नक्कारा, निशान
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