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दाढ़ा-पूजन *客來水本中****本字本**李李***本本本本來乎乎乎乎乎本本本卒卒卒卒卒卒中 है, तीर्थंकर प्रभु के सेवक-भक्त-अनन्यरागी तो देव और इन्द्र तक होते हैं इसलिए उनकी मूर्ति तो वे सुन्दर से सुन्दर और ऊँचे से ऊँचे . पदार्थ की बना सकते हैं, जब चित्र कला अनादि है और तीर्थंकर के रागी देवेन्द्र जैसे भी होते हैं तब यदि रागी व्यक्ति अपने प्रिय श्रद्धेय | और पूज्य की रागभाव में आकर मूर्ति बनवाले तो इसमें कौनसी बड़ी बात है? पर यह याद रहे कि इस प्रकार की बनवाई हुई मूर्ति और उसकी पूजा धर्म में शुमार नहीं हो सकती, न कथाओं के प्रमाण भी। विवादग्रस्त विषय में उपादेय होते हैं। ऐसे स्थान पर तो आप्त आज्ञा रूप विधि विधान ही कार्य साधक होते हैं, यदि किसी मूर्ति पूजक बन्धु में हिम्मत हो तो उभय मान्य मूल आगमों के वैसे प्रमाण प्रस्तुत करें, अन्यथा मूर्ति पूजा में धर्म है तथा यह जैनागम सम्मत है ऐसा कहना केवल उन्मत्त प्रलाप के समान ही ठहरेगा।
दाढ़ा-पूजन श्री ज्ञानसुन्दरजी ने तीसरे प्रकरण पृ० ५१ में तीर्थंकर की दाढ़ों का उल्लेख कर उनकी पूजन में आत्मकल्याण बताया, और इस तरह मूर्ति पूजा में धर्म मनवाने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह प्रयास भोले बन्धुओं को भ्रम में डालने के समान ही है। क्योंकि अस्थि-पूजा जैन समाज को मान्य ही नहीं है। ___ और जो इन्द्रादि देव तीर्थंकर की दाढ़ा लेते हैं तथा वंदनादि करते हैं, वे आत्मकल्याणार्थ नहीं, न उनके इस कृत्य को शास्त्रकार ने आत्मकल्याणकारी माना है। शास्त्रकार ने तो सूत्र में देवताओं की भावना का निर्देश मात्र किया है, जैसे कि
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