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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************** "केइ जिणभत्तीए, केइ जीअमेअंतिकट्ट, केइ धम्मातिकट्ट गेण्हति।" (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बाबू पत्र १४५) इसमें स्पष्ट बताया है कि कितने ही देव जिन भक्ति से, कितने ही परम्परागत आचार से और कितने ही धर्म जानकर ग्रहण करते हैं, यह बात आपने भी हमारे सामने पृ० ५२ में रक्खी है, किन्तु इसके आशय का एक अंश पकड़कर आपने अनर्थ कर डाला, आपने जीताचार, भक्ति भाव, और धर्मभाव, इन तीनों का आशय भिन्न २ नहीं बताया, यही आपकी खूबी है। जबकि समुचे देवों में एक हिस्सा भक्ति-राग वाला, दूसरा जीताचार मानने वाला, और तीसरा धर्म मानने वाला है तब दो हिस्से की उपेक्षा कर एक ही को पकड़कर प्रपञ्च चलाना कहाँ की बुद्धिमानी है? सुन्दर मित्र! जब देवों के भी दाढ़ा लेने में भिन्न भिन्न विचार हैं तब आप उसमें एकान्त धर्म ही कैसे बतलाते हैं ? वास्तव में दाढ़ा पूजा से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, धर्म नायक-तीर्थंकर देव की दाढ़ा होने मात्र से वे जड़ दाढ़ाएँ पूजनीय वन्दनीय नहीं हो सकतीं, इसलिए जिन देवों ने उन दाढ़ाओं को धर्म समझकर ग्रहण किया हो या जो धर्म मानकर वन्दते पूजते हों, उनकी मान्यता ठीक नहीं पाई जाती। वास्तव में यह भी राग का ही अविवेक है। क्योंकि यदि हड्डियों के ग्रहण करने या वन्दने पूजने में आत्मकल्याण रहा होता तो प्रभु के अनेकों गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर, साधु साध्वियें और लाखों श्रावक श्राविकायें भी प्रभु की अस्थियें लेकर वन्दना, स्तुति, पूजाआदि करते या उन्हीं हड्डियों के स्थापना तीर्थंकर (आपके स्थापनाचार्य की तरह) बनाकर रखते जबकि किसी भी साधु या साध्वी या श्रावक श्राविका ने अस्थि पूजा में धर्म नहीं माना न गणधरों ने ही धर्म मानने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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