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________________ ६२ दाढ़ा-पूजन का आदेश किया, तो ये मूर्ति भक्त महानुभाव हड्डी पूजा में धर्म बताकर क्यों भ्रम फैलाते हैं? आश्चर्य नहीं कि ऐसे ही प्रचार से जैन गृहस्थों में भी मरे हुए की हड्डियें तीर्थ के जलाशय में डालने का रिवाज चला हो? जबकि गृहस्थ अपने माता-पिता की हड्डियों को सम्हाल कर अच्छे भाजन में रक्खे और उन्हें कालान्तर में गङ्गा आदि नदी में डाल कर अपने कर्त्तव्य का पालन होना समझे, उन्हें तो हम मिथ्या क्रिया करने वाले कहें और हम खुद हड्डियों की पूजा में धर्म होना माने यह कहाँ का न्याय है? सुन्दर मित्र यदि दीर्घ दृष्टि से सूत्राशय पर विचार करते, या सद्गुरु के समीप समझते तो स्पष्ट मालूम होता कि - ये क्रियायें मुख्यतः जीताचार और रागभाव से ही की जाती है, जैसे कि १. तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण जानकर इन्द्रादि देवता मनुष्य लोक में आते हैं और तीर्थंकर के शव को देखकर "विमणे णिराणंदे अंसुपुण्ण-णयणे" अर्थात् शोक युक्त, आनन्द रहित और अश्रु पूर्ण नेत्र वाले होते हैं। यह स्पष्ट आर्तध्यान-जो कि इष्ट वियोग से होता है और रागभाव का द्योतक है। सारांश यह कि इन्द्रादि देवों का यह शोक करना रागभाव में-भक्ति के अतिरेक में संमिलित है। २. इसके बाद इन्द्र ने प्रभु के शव को स्नान कराया, शरीर को चन्दन से अर्चित किया। इससे भी धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं। हाँ राग और पूज्य पुरुष के शव का बहुमान (लौकिक व्यवहार से उत्कृष्टता पूर्वक करने) का ही उद्देश्य है। ३. इसके बाद स्वयं सौधर्मेन्द्र प्रभु को वस्त्र और अलंकार पहिनाता है। और भवनपत्यादि अन्य देव गणधरादि साधुओं को वस्त्र और आभूषण पहिनाते हैं, बतलाइये यह कौनसी धर्म करणी है? जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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