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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************************* प्रभु दीक्षित होने के दिन से निर्वाण पर्यन्त वस्त्र नहीं पहिनते हों, उन्हें निर्वाण पश्चात् वस्त्र पहिनावे और विशेष में आभूषण भी, क्या ऐसी भक्ति उचित है ? इसे शुद्ध भक्ति कहें या भक्ति का अतिरेक अर्थात् राग रंजित भक्ति ? Jain Education International ६३ ****** बस इसी रागभाव का ही परिणाम है, आर्त्तध्यान करना, शव को स्नानादि कराकर वस्त्राभूषण पहिनाना और इसी का फल है अस्थि पूजा । वास्तव में इन्द्रादि देव जीताचार और प्रभु के प्रति अनन्य राग से ही ये क्रियायें करते हैं किन्तु आत्मकल्याण रूप धर्म के निमित्त नहीं, इसके लिए भी प्रमाण देखिये - जब सौधर्मेन्द्र को अवधिज्ञान से यह मालूम होता है कि तीर्थंकर का निर्वाण हो गया तब वह विचार करता है कि - "तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराइणं तित्थगराणं परिणिव्वाण महिमं करित्तए । " उक्त सूत्र पाठ की वृत्ति करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं कि"तत् तस्माद्हेतोः जीतंकल्पः आचार एतद्वक्ष्यमाणवर्त्तते अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां अतीत वर्त्तमानाऽनागतानां शक्राणा मासनविशेषाधिष्टातृणां देवानांमध्ये इन्द्राणां परमैश्वर्य युक्ताणां देवेषुराज्ञां कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाण महिमां कर्तुं । " (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बाबू ० पत्र १३८) यहां शक्रेन्द्र केवल परंपरागत चले आते हुए जीताचार को जानकर ही निर्वाण क्रियादि करने की तैयारी करता है जो बिलकुल है । हमारा भी यही कहना है कि दाढ़ा पूजनादि क्रिया लौकिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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