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प्रारम्भ में ही पथ भ्रष्ट ******************* ********************* पूजन, करने की आज्ञा दी है? साधु साध्वियों के समूह के साथ संघ निकालकर आरम्भ समारम्भ करते हुए तीर्थ यात्रा जाने और इस प्रकार मौज उड़ाने की वीतराग प्रभु ने आज्ञा दी है क्या? ऐसे प्रश्न का उत्तर प्रश्नकार को या तो मौन से मिलेगा या क्रोध से ? अगर उत्तरदाता ने कुतर्कों का रास्ता पकड़ लिया तो वह इतनी बड़ी-बड़ी छलांगे मारेगा कि जिससे सत्य रूपी सुन्दर मार्ग से हटकर मिथ्यारूपी गहरी खाड़ी में जा गिरेगा। ___इसी प्रकार श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी कुतर्क करने में कमी नहीं की। ऐसी-ऐसी व्यर्थ की बातें लिख मारी हैं कि जिनके कारण सुन्दर मित्र की योग्यता स्पष्ट हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि भाषा, ज्ञान और विद्वत्ता न होते हुए भी साधुमार्गी समाज के मुनियों और सुधारकों को मूर्ख या अज्ञ कहने तक की धृष्टता कर डाली है। अपनी मूर्खता और द्वेष बुद्धि से प्रेरित होकर निन्दा करने एवं हँसी उड़ाने में भी सुन्दर मित्र ने पक्की वीरता दिखाई है।
___ सुन्दर मित्र की सुन्दर दलीलों का परिचय तो पाठकों को अगले प्रकरण से ही मिल जायगा। पाठक महोदय ध्यान पूर्वक अवलोकन करें।
प्रारम्भ में ही पथ-भ्रष्ट जिस कार्य का प्रारम्भ ही दोष युक्त हो उसका अन्त भी अनिष्टकारी माना जाता है। जो व्यक्ति लम्बा सफर करने की इच्छा से प्रस्थान करे और प्रारम्भ में ही विपरीत मार्ग का अनुसरण करने लग जाय तो उसका प्रवास सफलता पूर्वक होना असम्भव समझा जाता है। समझदार लोग प्रथम दृष्टिपात में ही कार्य के परिणाम को
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