SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १७ 卒卒卒卒卒卒卒卒*********本本*****卒卒卒來來來來來卒卒卒卒卒卒卒卒本本次 समझ लेते हैं। जब हम श्री ज्ञानसुन्दरजी के “मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास" के प्रारम्भ को ही देखते हैं, तभी यह स्पष्ट कहना पड़ता है कि - सुन्दर मित्र प्रारम्भ में ही पथ-भ्रष्ट हो गये। आप विषय प्रवेश करते हुए पृ० १ में लिखते हैं कि - "जैनागमों में षट् द्रव्य शाश्वत बताए हैं जिसमें पाँचद्रव्य अमूर्त और एक द्रव्य मूर्त हैxxx जब मूर्तद्रव्य (पुद्गल) अनादि हैतो मूर्ति-पूजाअनादिमानने में सन्देह ही क्या हो सकता है?". ___ सुन्दर मित्र की उक्त दलील कितनी थोथी और मिथ्या है, यह निम्न विचार से स्पष्ट हो जाता है। १. सुन्दर मित्र ने जिस मूर्त द्रव्य को अनादि बताया है यह वही इस पुस्तक के प्रारम्भ में प्रशंसित हुआ "पुद्गल" द्रव्य है। यदि पुद्गल पूजा में ही धर्म है तब तो संसारी जीव पुद्गल पूजक ही हैं। धन, धान्य, कुटुम्ब, परिवार, आदि पुद्गल की उपासना सभी करते हैं। इसलिए सुन्दर हिसाब से तो सभी धर्मी होंगे? और जो महात्मा (सर्वज्ञ से लेकर साधु पर्यंत) तथा आगम शास्त्र पुद्गल से विमुख होने का उपदेश करते हैं, वे अधर्मी तथा अधर्म प्रचारक ठहरेंगे। २. पुद्गल के अनादि होने से मूर्ति-पूजा भी अनादि मानली जाय तो फिर सुंदरजी को क्या अधिकार है कि वे जैनियों की मूर्तिपूजा को ही अनादि मानकर अन्य शिव, कृष्ण, राम, बुद्ध आदि की मूर्ति-पूजा की सादि कहें? और जैनियों की मूर्ति-पूजा में धर्म और अन्य की सात्विक मूर्ति-पूजा में अधर्म कहें? क्योंकि पुद्गल द्रव्य तो सबके लिये समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy