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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१५ ********************************************* संघ निकाल कर यात्रा करने या मन्दिर बनवाने तथा प्रतिष्ठा करवाने आदि मूर्ति सम्बन्धी किसी भी क्रिया की न तो कहीं आज्ञा ही है और न किसी धार्मिक पुरुष के धर्माराधन के चरित्र वर्णन में उल्लेख ही है। मूर्ति-पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा का किसी भी सूत्र में किसी भी तरह उल्लेख नहीं है। बिलकुल नहीं है, बिंदु विसर्ग तक नहीं है।
हमारे कितने ही मूर्ति-पूजक बन्धु मूर्ति-पूजा को जिनाज्ञा के अनुसार कहते हैं और इसके लिए आगम प्रमाण की दुहाई देते हैं। श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने भी अपने “मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक में ऐसा प्रयत्न किया है, किन्तु यह एक भ्रम-जाल ही है। श्रीमान् सुन्दरजी ने अपने सारे पोथे में एक भी प्रमाण ऐसा नहीं दिया जो मूर्ति-पूजा में धार्मिक श्रद्धा को पुष्ट करे। हाथ कंगन को आरसी क्या? पाठक स्वयं उस पुस्तक से निर्णय कर सकते हैं, सुन्दरजी ने इस विषय में जहाँ-जहाँ शास्त्रों के नाम से भ्रम फैलाया है, उस पर विचार हम इसी ग्रन्थ में कर रहे हैं, किन्तु मैं संक्षिप्त में दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूँ कि - जिनागमों में मूर्ति-पूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है, न सुन्दरजी भी ऐसा सिद्ध कर सके हैं। जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है, तो फिर सुंदर मित्र लावें कहाँ से? हाँ, व्यर्थ के कुतर्क खड़े करके भद्र जनता को वे भ्रम में अवश्य डाल सकते हैं।
एक साधारण पढ़ा लिखा और समझदार मनुष्य मूर्ति-पूजक विद्वान् से यह प्रश्न करले कि - महानुभाव! जरा यह तो बतलाइये कि जहाँ आचार धर्म की विधि बतलाने वाले सूत्र के सूत्र भरे पड़े हैं। जिनमें छोटी छोटी बातों के लिए स्पष्टता पूर्वक आज्ञा दी गई है, उनमें किसी एक भी जगह मूर्ति या मन्दिर बनवाने अथवा दर्शन,
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