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________________ १४ ** धर्म-मार्ग **** विभागे, अपच्छिमा मरणंतिया संलेहणा जूसणाराहणा, अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिकरवाए उवट्ठिए समणोवासए समणोवासिआ वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । उववाई सूत्र धर्म देशनाधिकार सू० ३४ तात्पर्य यह है कि - जो साधु साध्वी पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन त्यागव्रत का पालन करते हैं और जो श्रावक पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत का पालन करते हैं और अन्त समय में शल्य रहित होकर आराधना पूर्वक समाधि मरण करते हैं वे आज्ञा के आराधक होते हैं । Jain Education International इसके सिवाय सूत्रकृताङ्ग सूत्र श्रु० २ अ० २ में भी अगार और अनगार धर्म का वर्णन स्पष्टता के साथ किया गया है और भी सूत्रों में अनेक स्थलों पर धर्माराधन की विधि बतलाई गई है। श्रमण वर्ग के लिये तो रात्रि - दिन के २४ घंटों में जो-जो आवश्यक क्रियायें करनी आवश्यक हैं जैसे कि भोजन, पान, गमनागमन, भिक्षाचरी, शयन, परिष्ठापन, बोलना, चलना, वस्त्र पहिनना, पात्रादि कितने व कैसे रखना आदि क्रियाओं की विधि स्पष्ट समझा कर बतलाई है। इसी प्रकार अनेक महात्माओं के चरित्र वर्णन भी आगमों में अनेक स्थानों पर आये हैं। उनमें उनके धर्माराधन सम्बन्धी विस्तृत विवेचन मिलते हैं, किन्तु किसी भी स्थान पर ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि जिससे मूर्ति पूजा के सिद्धान्त को कुछ भी सहारा मिल सके। विधिवाद में farai भी स्थान पर मूर्त्ति पूजा करने या मूर्त्ति के दर्शन करने की आज्ञा नहीं दी गई। न ही किसी श्रमण महात्मा या श्रावक महोदय के चरित्र वर्णन में यह बात आई कि उन्होंने प्रभु मूर्ति के दर्शन या पूजा की हो। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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